Monday, August 13, 2012

अन्ना पार्टी का मुकाबला कांग्रेस कल्चर से

अन्ना पार्टी' पर हंगामा क्यों है बरपा?
लोकपाल बिल पर सरकार के रवैये से हताश टीम अन्ना के राजनीति में उतरने की घोषणा का विरोधियों के साथ-साथ समर्थकों का एक धड़ा भी उपहास उड़ा रहा है। केंद्र सरकार के ज्यादातर मंत्री और कांग्रेस के नेतागण तो अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे की तर्ज पर ताल ठोकते नजर आ रहे हैं। यह सही है कि राजनीति की राह पथरीली है, लेकिन मुझे तो लगता है कि यही टीम अन्ना के आंदोलन का स्वाभाविक मुकाम है। अतीत हमें बताता है कि हमारे देश की असंवेदनशील राजनीतिक जमात से कोई भी बात मनवाने के लिए खुद राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा होना जरूरी है।
देश में कोई भी सामाजिक आंदोलन राजनीतिक शक्ल अख्तियार किए बिना बड़े पैमाने पर सफल नहीं हुआ है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सपना लेकर बने राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ को भी अपने गठन के 26 साल बाद यह बात समझ में आ गई थी कि एजेंडे को लागू करने के लिए राजनीतिक ताकत बनना जरूरी है। इसके बाद भारतीय जनसंघ और बीजेपी के बनने की कहानी किसी से छिपी नहीं है। जयप्रकाश नारायण भी इंदिरा गांधी के अधिनायकवाद की चूलें तभी हिला पाए थे, जब पूरे विपक्ष को एकजुट करके उन्होंने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया था। बामसेफ दलितों-वंचितों के हक की लड़ाई को चर्चा के केंद्र में तभी ला पाया जब बहुजन समाज पार्टी बनी। मंडल की कहानी भी इससे अलग नहीं है। 
ऊपर के उदाहरणों का जिक्र करके मैं यह दावा नहीं कर रहा हूं कि ‘अन्ना पार्टी’ सड़-गल चुकी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर देगी। जैसी कि आशंका जताई जा रही है, हो सकता है कि राजनीति के मौजूदा तौर-तरीके के सामने टीम भी अन्ना घुटने टेक दे। हो सकता है कि वे अपने मकसद में सफल न हो पाएं। लेकिन इस डर से उन्हें एक ईमानदार कोशिश से तो नहीं रोका जा सकता न। क्या कोई इस तथ्य से इनकार कर सकता है कि इस आंदोलन ने भ्रष्टाचार को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। भले ही दिखाने के लिए ही सही, नेता भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए गंभीर होने की दुहाई देते फिर रहे हैं। यही नेता डेढ़-दो साल पहले छाती ठोक कर कहते थे कि भ्रष्टाचार इस देश में कोई मुद्दा नहीं है। इस आंदोलन ने एक बड़ा काम और किया है। आर्थिक उदारीकरण की मलाई काटने वाले मध्य वर्ग, जो राजनीति से नफरत करता था, को राजनीतिक रूप से शिक्षित किया है। इस आंदोलन में उनकी मौजूदगी अंधेरे में उम्मीद की लौ की तरह है।
मुझे नहीं पता कि टीम अन्ना ने राजनीतिक विकल्प पेश करने का निर्णय व्यापक सोच-विचार करके लिया है या फिर किसी मजबूरी में। लेकिन इतना तो दावे से कहा जा सकता है कि देश के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व की बेहयाई और वादाखिलाफी ने उन्हें इस रास्ते पर धकेला है। हमारे नेता जिस तरह से जनता की अपेक्षाओं से मुंह मोड़कर अपना पेट और घर भरने में लगे हैं, उससे आम आदमी हताश और आजिज है। इस सरकार की बेशर्मी देखिए, अन्ना और उनके साथियों के अनशन तोड़ते ही केंद्र सरकार ने ऐलान कर दिया कि लोकपाल बिल मॉनसनू सेशन में भी पेश नहीं होगा। यह साफ तौर पर सिविल सोसाइटी को चिढ़ाने और उकसाने की कार्रवाई है। साथ ही केंद्र सरकार ने यह भी साफ कर दिया कि संसद में लोकपाल बिल को लेकर जताई गई उसकी प्रतिबद्धता कितनी खोखली है।
फिलहाल इसक जवाब तो कोई नहीं दे सकता कि कैसे टीम अन्ना सियासत में अपना अलग रास्ता और मुकाम बनाएगी। कैसे उन खामियों से खुद को दूर रखेगी, जिससे हम सब त्रस्त हैं। आशंकाएं तमाम हैं, लेकिन सबका जवाब भविष्य ही दे सकता है। फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बने इस माहौल से उम्मीद तो जगी ही है। अन्ना की मुहिम अगर सफल होती है तो हमारी राजनीति साफ-सुथरी होगी। लेकिन, अगर वह असफल हो जाते हैं तो यह बात साफ हो जाएगी कि हम खुद ही वर्तमान घिनौनी राजनीति को ढोना चाहते हैं। इसलिए यह टीम अन्ना से ज्यादा हमारा इम्तिहान है।




अन्ना पार्टी का मुकाबला कांग्रेस कल्चर से
अन्ना हजारे का यूपीए से सीधे-सीधे चुनावी मैदान में मुकाबला करने का फैसला स्वागत योग्य है। इससे एक उम्मीद जगी है। पिछले दिनों उन्होंने एक ब्लॉग लिखकर यह भी बताया है कि वह इस मामले में कैसे आगे बढ़ेंगे। जाहिर है कि वह फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहते हैं ताकि अन्ना के नाम से जीते एमपी-एमएलए वैसे ही न बन जाएं जैसे बाकी पार्टियों के सांसद और विधायक हैं।
अन्ना की आशंका जायज़ है। याद कीजिए लालू और मुलायम को जो एक जनआंदोलन से निकले थे। लेकिन आज वे करप्शन और वंशवाद में कांग्रेस को मात दे रहे हैं। कल ही मुलायम के भाई शिवपाल सिंह यादव ने अपने अधिकारियों से कहा कि वे छोटी-मोटी चोरी (रिश्वतखोरी) कर सकते हैं लेकिन डकैती की इजाज़त नहीं होगी। यह है कुर्सी की राजनीति का असर कि जो भी इसका एक घूंट लेता है, वह सत्ता के नशे में इस कदर मदहोश हो जाता है कि उसके बाद उसे न जनता दिखती है, न समाज, न देश।
पीछे मुड़कर देखें तो हम पाएंगे कि आज देश में चुनावी राजनीति का जो रंग है, वह कांग्रेस का दिया हुआ है। स्वाधीनता संग्राम की सफलता के बाद सत्ता में कांग्रेस आई और इस देश में उसने एक राजनीतिक संस्कृति को कायम किया। राजनीति में कांग्रेस ने एक ऐसी संस्कृति रची है, जिसे सभी राजनीतिक पार्टियों को स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ता है। इसे कांग्रेसी कल्चर कह सकते हैं। इस कांग्रेसी कल्चर को राजनीति में जो कबूल नहीं करते, राजनीति उनको कबूल नहीं करती। देश की राजनीति संस्कृति मूल रूप से कांग्रेसी संस्कृति है। कहने के लिए सेकुलरवादी है मगर चुनाव जीतने के लिए स्ट्रैटिजी के रूप में संप्रदायवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद, बाहुबल, धन-बल आदि तमाम हथकंडों को अपनाती है। नतीजा यह निकलता है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों को कांग्रेस से इन्हीं मुद्दों पर मुकाबला करना पड़ता है।
मिसाल के तौर पर भाजपा को सत्ता में आने के लिए कांग्रेस से आगे बढ़कर सांप्रदायिकता की राजनीति अपनानी पड़ी। कांग्रेस ने अयोध्या में ताला खुलवाया, तो बीजेपी को बाबरी मस्जिद गिराकर हिंदुत्व का उन्माद फैलाना पड़ा। कांग्रेस ने छद्म सेकुलरवाद से जनता को लुभाया और ठगा तो भाजपा ने छद्म हिंदुत्व से हिंदुओं को ठगा। कांग्रेस ने वोट जीतने के लिए रणनीति के तौर पर जातिवाद का सहारा लिया तो लालू, मुलायम और मायावती ने कांग्रेस से आगे बढ़कर जातिवाद की राजनीति की और कांग्रेस को परास्त किया। क्षेत्रवाद में ठाकरे चाचा-भतीजे कांग्रेस को दुलत्ती मारकर आगे निकल गए। कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिए अपराधी तत्वों का सहारा लिया, तो बाकी राजनीतिक दलों ने बड़े-बड़े गैंगस्टर और माफिया को अपने दल में शामिल करके कांग्रेस को शिकस्त दी। आज काले धन का सहारा कांग्रेस से आगे बढ़कर बाकी राजनीतिक पार्टियां ले रही है।
देश की राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस से आगे निकलने के लिए कांग्रेस कल्चर अपना रही हैं। कांग्रेस जैसी राजनीति की व्यूहरचना कर रही है। मूल्यों और आदर्शों को तिलांजलि दे रही हैं। स्थिति यहां तक आ गई है कि अफवाहों और चरित्रहनन की राजनीति में बाकी पार्टियां कांग्रेस से आगे निकल गई है।
भागलपुर के पूर्व सीपीएम सांसद सुबोध राय जीवन भर मार्क्सवादी रहे। मार्क्स और लेनिन पढ़ते रहे। मगर लालू जी के आशीर्वाद और राजद के सहयोग से एमपी बने। सत्ता का स्वाद चखा। सत्ता का नशा ऐसा चढ़ा कि सीपीएम छोड़कर जदयू में शामिल होकर विधायक बन गए। यही कांग्रेस कल्चर का तो कमाल है। कांग्रेस कल्चर से अछूती कोई पार्टी नहीं है। कांग्रेस और भाजपा दो बड़ी और राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियां हैं। कांग्रेस के सामने भाजपा आती है, तो कांग्रेसी कांग्रेस हित की बात करते हैं। ऐसे ही भाजपा के सामने कांग्रेस आती है तो भाजपाई भाजपा हित की बात करते हैं। यह एक स्तर है। दूसरा स्तर है जब कांग्रेस के भीतर की बात उठती है, तो कांग्रेसी अपनी लॉबी के हित को सर्वोपरि मानते हैं। ऐसे ही भाजपाई भी। तीसरे स्तर पर देखने में जो बात आती है, वह यह कि जब अपनी लॉबी की बात उठती है, तो जो ज्यादा वफादार होते हैं, उन्हें रखा जाता है और बाकी का पत्ता साफ कर दिया जाता है। सो, व्यक्तिगत हित सर्वोपरि हो जाता है। बाकी जनहित, राष्ट्रहित और विश्वहित पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। ऐसी ही राजनीति हो गई है।
ऐसे में अन्ना क्या कर पाते हैं और हम यानी भारतीय जनता उनके साथ कितना सहयोग कर पाते हैं, यह देखना महत्वपूर्ण है। जैसा कि इसी मंच पर हमारे साथी ब्लॉगर प्रभाष झा ने लिखा है - अन्ना की मुहिम अगर सफल होती है तो हमारी राजनीति साफ-सुथरी होगी। लेकिन, अगर वह असफल हो जाते हैं तो यह बात साफ हो जाएगी कि हम खुद ही वर्तमान घिनौनी राजनीति को ढोना चाहते हैं। इसलिए यह टीम अन्ना से ज्यादा हमारा इम्तिहान है।

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