Sunday, May 14, 2017

निर्भया के न्याय से सबक ले समाज

निर्भया के न्याय से सबक ले समाज

सामाजिक मर्यादाओं को जिन्दा रखने की जरुर

सुरेश हिन्दुस्थानीविश्व के लिए आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले भारत देश में निर्भया जैसे प्रकरण घटित होते हैं, तब स्वाभाविक रुप से यह सवाल उठता ही है कि क्या यह भारत के स्वभाव से समन्वय रखता है। इस बात का सर्वथा यही उत्तर दिखाई और सुनाई देगा कि यह भारत का स्वभाव हो ही नहीं सकता। फिर क्यों हमारे देश में निर्भया जैसे प्रकरण घटित होते रहते हैं। क्या हम अपने देश के मूल स्वभाव को विस्मृत कर चुके हैं या फिर हम एक ऐसी राह की ओर कदम बढ़ा चुके हैं जो भारत के विपरीत हो सकती है। हम जानते हैं कि हम उस भारत में रहते हैं जहाँ नारी को देवी का स्वरुप मानकर पूजा जाता है एवं नारी को ही सर्वोच्च माना जाता है। वास्तव में नारी के बिना मनुष्य की कल्पना निरर्थक ही लगती है, नारी ही पुरुष की जन्म दाता है। लेकिन वर्तमान में हम अपने कर्तव्य को ही भूलते जा रहे हैं।
निर्भया दुष्कर्म मामले में न्यायपालिका ने एक बार फिर अपराधियों को मिली कठोर सजा को बरकरार रखा है। इस निर्णय की देश के नागरिकों ने उसी तरह से स्वागत किया है, जैसे वर्ष 2012 में इसका विरोध किया था। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से जनसामान्य के डगमगाते विश्वास को मजबूती मिली है। इतना ही नहीं न्यायालय के इस निर्णय से इस प्रकार के अपराध करने वाले लोगों के दिलों में डर पैदा होगा वहीं हमारी बेटी और बहुओं में न्यायालय के प्रति आत्मविश्वास भी पैदा होगा। यहां पर यह सवाल भी आता है कि न्यायपालिका ने सजा देकर अपना काम कर दिया, लेकिन क्या इतने भर से निर्भया जैसे प्रकरणों में कमी आएगी। प्रथम दृष्टया तो यही लगता है कि अपराधियों को केवल कानून से डर लगता तो संभवत: देश में कोई अपराध होता ही नहीं। प्राय: देखा जाता है कि भारत के कई लोग कानून तोड़ने में ही अपनी शान समझते हैं। महानगरों में चौराहों पर लगे यातायात नियंत्रण प्रणाली का प्रतिदिन मजाक बनाना हमारी दिनचर्या में याामिल हो गया है। क्या यह कानून का मजाक नहीं कहा जाएगा। इसी प्रकार समाज में भी कई प्रकार के नियम बनाए गए हैं, लेकिन वह नियम सरेआम टूटते हुए दिखाई देते हैं। जिसमें दम होती है, उसके लिए नियमों का कोई अर्थ नहीं है, जो बेदम हैं वह नियमों के फेर में तो पिस ही रहे हैं, साथ ही अन्याय का शिकार भी होते जा रहे हैं। इसलिए हमें अगर भारत को सुधारना है तो सबसे पहले स्वयं को नियम के मुताबिक चलाना होगा, फिर चाहे वह घर में बनाए गए नियम हों, या फिर समाज और देश के लिए बना नियम हों।
नियम या मर्यादाओं को तार तार करने वाले कुछ लोग भारत को बदनाम कर रहे हैं। पूरे विश्व में भारत की छवि को धूमिल करने में निर्भया के अपराधी जैसे लोग मर्यादा विहीन आचरण करके यह भूल जाते हैं कि वह भी उसी सामाजिक ताने बाने के अंग हैं, जिसमें उनकी मॉ और बहन निवास करते हैं। हमारे देश की यह विशेषता है कि हम सारे विश्व को एक परिवार की नजर से देखते हैं। इसके अंतर्गत होना यह चाहिए कि हम अपने परिवार के प्रति जो भाव रखते हैं, वही भाव समाज और देश के प्रति भी रखना चाहिए। लेकिन आज भारतीय मर्यादाओं का बिखराब होता दिखाई दे रहा है। ऐसे में हम सभी के सामने यह सवाल आता है कि जो संयम कभी भारत की पहचान हुआ करती थी, आज वह ढूंढ़ने पर भी दिखाई नहीं देता। वास्तव में संस्कार, संयम, मर्यादा जैसी संहिताएं भारत का ऐसा स्वर्णिम दस्तावेज है, जिसके बिना भारत की कल्पना निरर्थक है।
निर्भया मामले में भले ही दोषियों को मौत की सजा मिल गई हो, लेकिन सबसे बढ़ा सवाल यही है, ऐसी अमानुषिक घटनाएं होती ही क्यों हैं? इसके पीछे कहीं न कहीं सामाजिक परिवेश में व्याप्त हुर्इं बुराइयां ही कारण मानी जा सकती हैं। परिवारों में हो रहे विघटन के कारण भी हम आपसी संबंधों को भूलते जा रहे हैं। पारिवारिक मर्यादाओं की बलि अपने आप चढ़ती जा रही है। ऐसे में हम किस प्रकार सुधार की कल्पना कर सकते हैं। यह यक्ष प्रश्न कहा जा सकता है। वास्तव में इस सबका जवाब हम सभी के पास है, आवश्यकता केवल इस बात की है कि जिस प्रकार से हम घर में मर्यादित आचरण करते हैं, उसी प्रकार हम समाज के बीच जाकर करें। निर्भया घटनाक्रम के बाद देश में जिस प्रकार का आक्रोशित भरा वातावरण बना, उससे ऐसा तो लगा कि भविष्य में निर्भया जैसी घटनाओं में कमी आएगी, लेकिन ऐसा कहीं भी दिखाई नहीं दिया। इसके पीछे कहीं न कहीं हमारी न्याय प्रक्रिया में देरी भी मुख्य कारण मानी जा सकती है। हमें न्याय तब मिलता है, जब मामले की आग ठंडी हो जाती है। ऐसे में जो संदेश समाज के बीच प्रवाहित होना चाहिए था, वह नहीं हो पाता।
2012 में घटित हुई इस घटना ने भारत में रहने वाली हर महिला के दिलो दिमाग पर गहरा असर डाला है। लड़कियों के शोषण के मामले में अगर एक उदाहरण नई दिल्ली का लिया जाए तो यह पता चलता है कि नई दिल्ली में यौन अपराधों की दर अन्य महानगरों के मुकाबले सर्वाधिक है स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो लगभग 18 घण्टे में एक लड़की का दुष्कर्म होता है। आखिर कब तक समाज की इस कुुत्सित मानसिकता की शिकार एक लड़की होती रहेगी।
अगर इन मामलों में न्यायिक फैसलों की बात करें तो भारत की महिला राष्टÑपति प्रतिभा पाटिल द्वारा दुष्कर्म के पांच मामलों में फांसी की सजा को माफ करके उसे उम्र कैद में परिवर्तित किया गया, अन्तर्राष्टÑीय स्तर पर इस फैसले की बहुत निन्दा की गयी। यह बहुत ही शर्म की बात है कि  हमारे भारत के संविधान में एक नारी का दुष्कर्म होने पर उसके दोषी को फांसी देने पर सौ बार सोचा जाता है, लेकिन निर्भया मामले में पहली बार अपराधियों को फाँसी की सजा मिली है इसे समाज में एक नई पहल कहा जा सकता है। जरूरत इस बात की है कि लोगों का दृष्टिकोण महिलाओं के प्रति बदले, जो निर्भया के साथ हुआ भविष्य में वो किसी और के साथ घटित न हो ऐसी कोशिश हमारे भारत के हर नागरिक को करना चाहिए। इसके लिए हमारे भारत की न्यायिक प्रक्रिया का सख्त होना आवश्यक है जिससे निर्भया और उस जैसी कई लड़कियों के अपराधियों के  अपील करने के, बचाव के रास्ते को बन्द किया जा सके।
यहां एक बात कहना बहुत जरुरी लग रहा है कि जिस प्रकार से हम अपने बच्चों को नई शिक्षा दे रहे हैं उसी प्रकार से हमें इन बच्चों को संस्कार देने की आवश्यकता है। इन संस्कार के माध्यम से ही अपराध की प्रवृत्ति पनपेगी ही नहीं। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय स्वागत योग्य है। हमें लोगों को जागरूक करने के लिए सामाजिक स्तर पर मुहिम चलाने की आवश्यकता है। न्यायालय के इस निर्णय का हम स्वागत करते हैं। न्याय में देर हुई मगर निर्भया के साथ न्याय हुआ है। लोग जिस प्रकार से अपने घर की बहु-बेटी का सम्मान करते हैं उसी प्रकार से उन्हें घर के बाहर की बहु-बेटियों का भी सम्मान करना चाहिए। निर्भया आज हम सभी के दिलों में जिंदा है। समाज में ऐसे अपराधों की पुनरावृत्ति न हो इस दिशा में और कठोर कानून की जरूरत है। कानून में ऐसा कोई पेच न हो जो अपराधी को बचाने में मदद करे। निर्णय जल्दी आना चाहिए था और कष्टदायक होना चाहिए जिससे उन लोगों को भी वहीं कष्ट हो जो निर्भया को हुआ था।

सुरेश हिन्दुस्थानी, वरिष्ठ पत्रकार
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