Tuesday, November 19, 2013

बन्द होना चाहिए झूंठ पर आधारित राजनीति
सुरेश हिन्दुस्तानी
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल रही हैं। ऐसे में सभी राजनीतिक दल अपने आपको आम जनता का हितैषी सिद्ध करने का प्रचार कर रही हैं। कहने का तात्पर्य है राजनीति में जो सुना जाता है वह होता नहीं है। परदे पर कुछ और दिखाने का प्रयास करते हैं, वास्तविकता कुछ और होती है। वर्तमान में राजनीतिक दल धरातल पर बाहुबल और धनबल के सहारे चुनाव जीतने का प्रयत्न करते हैं। जबकि यह सब दिखाई नहीं देता। लेकिन आम जनता को यह मालूम है कि वास्तविकता क्या है। सारे चुनावों की छिपी हुई हकीकत यही है कि चुनाव में पैसा पानी की तरह प्रवाहित किया जाता है? जो लोग पैसे की भाषा नहीं समझते उन्हें समझाने के दूसरे तरीके अपनाए जाते हैं, यानी बाहुबल का सहारा लिया जाता है। हालांकि इस सत्य को राजनेता इतनी सफाई से करते हैं कि कोई भी संस्था इसे गलत सिद्ध नहीं कर सकती?
    वर्तमान में एक नई प्रकार की राजनीति का उदय हुआ है, उसके अंतर्गत अपने दल की कार्यप्रणाली का या कहा जाए कागुजारियों का बखान कम, दूसरे दलों की छीछालेदर करना ज्यादा ही देखने में आ रहा है। इस प्रकार का खेल कांगे्रस में कुछ ज्यादा ही चल रहा है। कारण साफ है कि कांगे्रस भ्रष्टाचार के बारे में ज्यादा बोल नहीं सकती। क्योंकि कांगे्रस की सरकार में मंत्रियों और कांगे्रसी नेताओं ने जिस प्रकार से भ्रष्टाचार के कारनामे किए, उससे देश को करोड़ों का नुकसान हुआ। कांगे्रस के नेताओं ने भ्रष्टाचार के नाम पर जितनी कमाई की है, वह करोड़ों अरबों में है। आज देश पर जो आर्थिक बोझ आया है, उसके पीछे के कारणों में यह भ्रष्टाचार एक है।
    देश में जैसे जैसे विदेशी संस्कार आ रहे हैं, वैसे ही राजनीति में भी कुसंस्कार जन्म ले रहे हैं। आजकल तो झूंठ बोलने में माहिर व्यक्ति को राष्ट्रीय स्तर का राजनेता माना जाता है। कांगे्रस के राहुल गांधी को ही ले लीजिए, राहुल ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, कि मुझे देश के खुफिया विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि भारत के मुसलमानों से पाकिस्तान के आतंकवादी बात कर रहे हैं। यहां पर यह सवाल उठता है कि विदेश विभाग तो केन्द्र सरकार के पास है, फिर इसमें भाजपा की नाकामी की बात कहां से आ गई। इसका मतलब यही हुआ कि केन्द्र सरकार अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रही है। वास्तव में वर्तमान की राजनीति टोपी पहनाने की है, आम जनता को कौन टोपी पहनाता है? यह देखना होगा। वैसे इस काम में कांगे्रस बहुत आगे है, कांगे्रस ने हमेशा ही ऐसी राजनीति की है कि उसकी कमजोरी से आम जनता का ध्यान हट जाए। राहुल गांधी ने जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है, वह केवल आम जनता का ध्यान हटाने की कोशिश है।
    वर्तमान में भारत की राजनीति में प्रतिद्वंद छिड़ा हुआ है। राजनीति में जिस प्रकार का वाद प्रतिवाद चल रहा है वह या तो मूर्ख बनने की प्रक्रिया का हिस्सा है या फिर मूर्ख बनाने की। अब आज के हालात में कौन मूर्ख बनता है और कौन बनाता है, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है। जैसे ही समय की सीमा पूरी हो जाएगी, इसके पीछे का अर्थ सामने आता चला जाएगा।
    आज हमारे देश की राजनीति में नेताओं के कई रूप देखने को मिल जाते हैं, यानि जैसी स्थिति होती है नेता लोग अपने को वैसा ही प्रचारित करने लग जाते हैं। इसको और व्याख्या करके कहा जाये तो तर्क संगत ही होगा कि हमारे नेता बहुरूपिया बन जाते हैं और भारत देश की भोली भाली जनता उनके इस नकली रूप को देखकर भ्रमित हो जाती है। देश भर में सारे नेता इस होड़ में आगे दिखने का प्रयास कर रहे हैं कि हम ही जनता के असली हितैषी हैं। नेताओं का यह रूप हमारे देश को किस दिशा में ले जाएगा या ले जारहा है, पता नहीं। पर यह सत्य है कि यह खेल बहुत ही खतरनाक है। देश के भविष्य के साथ एक प्रकार का अनहोना अपराध है?
    भारत की राजनीति में आज ऐसे नेता उदय हो चुके हैं। बार बार रूप बदलना नेताओं की फितरत बन गया है। भारत की जनता के समक्ष ऐसे हालात बन गए हैं कि वह सही और गलत की पहचान भी नहीं कर पा रहे कि कौन है असली और कौन है नकली? यहाँ यह बात भी कहना जरूरी है कि यह कोई राजनीतिक बात नहीं है, और नहीं हम किसी का समर्थन या विरोध कर रहे हैं, बल्कि आज जो हालात हैं उसे जस का तस रखने का साहस कर रहे हैं। अभी हाल ही राहुल गांधी ने ताबड़तोड़ सभाएं करके कांगे्रस के पक्ष में माहौल गरमाने की कोशिश की है, लेकिन उनके बोलने से साफ लगता है कि वह बिना किसी पूर्व तैयारी के ही बोलना शुरू कर देते हैं। जब तैयारी नहीं होती तब झूंठ का भी सहारा लेना पड़ता है, राहुल ने भी ऐसा ही झूंठ बोला? राहुल के भाषण देने के मात्र दो दिन बाद यह साफ हो गया था कि राहुल ने झूंठ बोला, क्योंकि सरकार के गृह मंत्रालय ने राहुल के बयान से पल्ला झाड़ लिया है। ऐसे में सवाल यह भी आता है कि क्या सरकार राहुल के विरोध में कार्यवाही करने का साहस जुटा पाएगी। वास्तव में तो ऐसा नहीं लगता, सरकार कार्यवाही नहीं कर सकती। अगर ऐसे बयान राहुल के अलावा किसी अन्य दल का नेता देता तो सरकार और कांगे्रस उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाती।
    हमारे राजनेता कौन कौन से खेल खेलते हैं यह आज सबको दिखाई देने लगा है। अपनी कुर्सी बचाने की खातिर आज के नेता अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने का कारनामा करते हैं। कुर्सी प्राप्त करते ही नेता लोग पैसा एकत्रित करने में लग जाते हैं। आज देश में कई नेता ऐसे हैं जिनका व्यवसाय कुछ नहीं होने पर भी धनवान बन गए हैं, वास्तव में आज की राजनीति सेवा का माध्यम न होकर एक व्यवसाय बन गई है। राजनीति का जिस प्रकार से व्यवसायीकरण हुआ है उसी के परिणाम स्वरूप हमारा देश रसातल की ओर जा रहा है और उसका खामियाजा देश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। वर्तमान में सोनिया और राहुल के नाम से कोई व्यवसाय देश में नहीं है, फिर भी इनके पास पैसा निर्बाध गति से बढ़ता जा रहा है। क्या कोई बता सकता है कि यह पैसा कहां से आया है?
आज की राजनीति में नेताओं द्वारा जिस प्रकार की राजनीति की जाती है, वह केवल भारत के एक वर्ग विशेष को प्रभावित करने के लिए किया जाता है। इस वर्ग में उच्च स्तर का जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या बहुत ही कम है, लेकिन अपने संप्रदाय के प्रति बहुत कट्टर होते हैं। जो नेता इनके संप्रदाय के बारे में अच्छी बात बोलता है, उस नेता को ये लोग अपना हमदर्द मानने की भूल कर बैठते हैं। बस यही कारण है कि नेता लोग इस समुदाय को वोट बैंक मानकर चाल चलता है, लेकिन आज का यह समुदाय भी असलियत जान चुका है, भावनाएं भड़काने का यह खेल अब समाप्त होना चाहिए।

कांग्रेस की दिल्ली रैली के निहितार्थ

सुरेश हिन्दुस्थानी
देश के पांच राज्यों में जिस प्रकार से ताबड़तोड़ चुनाव प्रचार चल रहा है, उसमें हो रही चुनावी सभाओं में भीड़ कहीं कम तो कहीं ज्यादा आ रही है। जब चुनावी सभा में ज्यादा भीड़ आती है तो जिस दल की सभा होती है, उस दल के कार्यकर्ता समझने लगते हैं कि यह सब हमारे दल के मतदाता बन गए हैं और यह भ्रम हो जाता है कि अब सरकार उनकी ही बनने वाली है। इसके विपरीत जब भीड़ अपेक्षा से बहुत कम रहती है तो उस दल के नेताओं को पसीना छूटने लगता है। हम जानते हैं कि भारत में जन इच्छा ही सर्वोपरि मानी जाती है और लोकतंत्र की परिभाषा भी यही प्रतिपादित करती है। जब भीड़ कम होती है तब इसे जनता की इच्छा ही मानना चाहिए, लेकिन हमारे राजनेता इस सत्य को स्वीकार करने का साहस कदापि नहीं कर पाते। राजनीतिक दलों के नेता इसमें भी किन्तु परन्तु तलाशने लगते हैं।
दिल्ली के दक्षिणपुरी में हुई कांग्रेस की एक रैली में कुछ इसी प्रकार का दृश्य दिखाई दिया। जिसमें कांग्रेस के सितारा प्रचारक राहुल गांधी का भाषण होना था। कहते हैं कि इस सभा में जब राहुल गांधी बोलने खड़े हुए तब जनता अचानक सभा स्थल से जाने लगी। हालांकि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने इस अपमान से बचने के लिए प्रयास करते हुए जनता से आहवान किया कि जनता रुक जाए, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। इस रैली में राहुल का भाषण किसने सुना होगा, जब जनता ही नहीं रुकी। दिल्ली की इस रैली से कांग्रेस के बारे जो समाचार माध्यमों में लिखा गया, उसके निहितार्थ कांग्रेस तो तलाश कर रही होगी, साथ ही राजनीतिक विश्लेषक ही अर्थ ढूंढ रहे होंगे। शीला दीक्षित ने तो यह भी कहा कि ऐसा हर रैली और सभा में होता आया है कि लोग खाने पीने चले जाते हैं और फिर वापस भी आ जाते हैं। शीला को यह भी पता होना चाहिए कि वे जाने के बाद फिर वापस नहीं आए।
कांग्रेस की इस रैली के असफल होने के पीछे क्या कारण रहे होंगे, फिलहाल तो कहा नहीं जा सकता लेकिन इससे एक बात तो साफ है कि या तो दिल्ली का आम मतदाता बहुत समझदार है या नासमझ। नासमझ इसलिए कहा जा सकता है कि इतने बड़े नेता राहुल गांधी की सभा से उठकर जाने की उनकी हिम्मत कैसे हुई, संभवत: आम जनता को मालूम नहीं था कि राहुल गांधी कांग्रेस के युवराज हैं, और कांग्रेस की ओर से उनको प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी भी हो चुकी है। हालांकि इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि कांग्रेस में अन्य कई नेता इतने तो योग्य हैं ही कि वे आम जनता के बीच भाषणबाजी कर सकें। कांग्रेस की इस सभा को लेकर सवाल यह भी खड़ हो रहे हैं कि क्या वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे या कांग्रेस के मतदाता, सभा से उनका चले जाना शायद यह तो जाहिर कर ही देता है कि ना तो वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और न ही कांग्रेस के मतदाता, अगर कांग्रेस के प्रति जरा सा भी झुकाव होता तो वे रुक जाते, पर ऐसा लगता है कि इस भीड़ को स्थानीय नेता अपने अपने प्रबंधन से लेकर आए थे, अगर इस प्रकार से आते तो भी रुकते। दिल्ली की आमसभा में जो जनता आई वह महज तामाशाई भीड़ कही जा सकती है, क्योंकि इसे किसी नेता का करिश्मा या किसी पार्टी के प्रति के तौर पर कतई नहीं देखा जा सकता। इससे सवाल तो यह भी पैदा होता है कि क्या राहुल का जादू खत्म हो गया है, वैसे इस बात का जवाब तो कई बार मिल चुका है। उत्तरप्रदेश और बिहार इसके सटीक उदाहरण हैं, इन राज्यों में जिस प्रकार से राहुल गांधी ने मेहनत की थी वह किसी से छिपी नहीं हैं, चांदी के बर्तनों में खाने वाले ने उत्तरप्रदेश में गरीब की थाली का खाना खाया, यह बात और है कि वह खाना कहीं और से बनकर आया था और सुरक्षा दस्ते की निगरानी में रहा। इसे नौटंकी नहीं तो और क्या कहा जाएगा। उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणामों ने कांगे्रस की क्या तस्वीर दिखाई यह सबने देखा। इसी प्रकार दिल्ली में कांगे्रस की संभावनाओं को झटका लगा है।
राहुल की इस सभा के बाद कहा तो यह भी जा रहा है कि अब दिल्ली में राहुल गांधी की कोई सभा भी न हो, कांग्रेस बिरादरी के नेताओं के जिस प्रकार के स्वर उभरे हैं वह तो इसी प्रकार का संकेत करते हैं। कई कांग्रेसी नेता अब दिल्ली में राहुल की सभा नहीं चाहते, उनको आशंका है कि कहीं सभा की हालत वैसी ही न हो जाए जैसी दक्षिणपुरी की सभा की हुई, कांग्रेसी मानते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस के लिए हालात और खराब हो जाएंगे। वैसे यह बात सत्य है कि राहुल गांधी जब बोलते हैं, तब ऐसा लगता है कि वे नेता की भूमिका का बाल अभिनय कर रहे हैं। भाषण के दौरान उनका हाथ उठाना स्वाभाविक प्रतीत नहीं होता, किसी रिमोट द्वारा संचालित किया गया लगता है।
राहुल की सभा का बार बार असफल होना क्या कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है, यकीनन यह सत्य भी हो सकता है क्योंकि आज तक कांग्रेस के किसी भी नेता ने जनता की परेशानी का अपने भाषणों में जिक्र तक नहीं किया। पूरा देश महंगाई के बोझ तले दबा है, केन्द्र में जमकर भ्रष्टाचार है। ऐसे सभी मुद्दे वर्तमान में कांग्रेस के भाषणों से गायब हैं। कांग्रेस के सभी भाषण ऐसे लगते हैं कि वह केवल विरोध करने के लिए विरोध करते हैं, उनमें सत्यता का जरा सा भी पुट नहीं रहता। एक लाइन में कहा जाए तो यह कहना तर्क संगत ही होगा कि कांग्रेस आज आज केवल और केवल सत्ता प्राप्ति के लिए छटपटा रही है, वे बिना सत्ता के जीवित ही नहीं रह सकते। मध्यप्रदेश के चुनाव में कांग्रेस का प्रचार कुछ इसी तर्ज पर चल रहा है, कैसे भी हो सत्ता प्राप्त करना एक मात्र उद्देश्य है। 
भाजपा और कांग्रेस की बात की जाए तो कांग्रेस पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव को नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी बनाने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन जिस प्रकार से मोदी की सभाओं में भीड़ उमड़ रही है, उसी प्रकार से राहुल की सभाओं में भी भीड़ पर्याप्त नहीं रहती। ऐसे में कांग्रेस के उस दावे की हवा निकलती दिखाई दे रही है, जिसमें कांग्रेस राहुल को मोदी के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश में प्रयत्न कर रही थी। आगामी लोकसभा चुनाव कांग्रेस राहुल को आगे करके ही लड़ेगी, यह तय सा लगने लगा है, लेकिन जिस प्रकार से राहुल का प्रभाव क्षीण होता जा रहा है, उससे कांग्रेसियों के होश उडऩे लगे हैं।

फिर राजनीतिक भंवर में पाकिस्तान

सुरेश हिंदुस्तानी पाकिस्तान के बनने के पश्चात प्रारंभ से पैदा हुई उसकी राजनीतिक दुश्वारियां अभी तक पीछा नहीं छोड़ रही हैं। सत्ता के संघर्ष के...