Saturday, March 8, 2014

अवसरवादी राजनीति का मोर्चा

सुरेश हिन्दुस्थानी
अपने अपने राज्यों में राजनीतिक शक्ति माने जाने वाले दलों ने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह स्थापित करने के लिए एक बार फिर से तीसरे मोर्चे का गठन करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का प्रयास किया है। राजनीतिक संभावनाओं को तलाश करता यह मोर्चा अपने भविष्य को लेकर सशंकित अवश्य होगा, क्योंकि जिस प्रकार से इन दलों ने प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, उससे कई प्रकार के सवाल जन्म लेने लगे हैं। उसमें पहला तो यह हो सकता है कि प्रधानमंत्री की घोषणा कहीं तीसरे मोर्चे की उम्मीदों को चकनाचूर न कर दे, क्योंकि तीसरं मोर्चे के सभी राजनेता राजनीतिक जगत में समान अस्तित्व रखते हैं। हर चुनाव में तीसरे मोर्चा का बनना और बिखर जाना ही इस मोर्चे की नियति है और आवश्यकता होने पर दल कांग्रेस की झोली में गिर जाते हैं।
क्या यह तीसरे मोर्चे की वही राजनीति नहीं है, जो पिछले 25 वर्षो से देश में हर आम चुनाव से पहले शुरू होती है और चुनाव आते-आते बिखर जाती है? वस्तुत: इन प्रश्नों का जवाब हां ही है। इस तथाकथित तीसरे मोर्चे के धुरंधर भारतीय राजनीति की जमीनी सच्चाइयों को समझना नहीं चाहते। बेशक, ये अपने-अपने राज्यों में ताकतवर हैं, मगर राष्ट्रीय स्तर पर उनकी राजनीति राष्ट्रीय दलों के विरोध के आधार पर नहीं चल सकती, जो कि उनका एक सूत्रीय कार्यक्रम है। यह तब चलेगी, जब वे बताएंगे कि देश के विकास का उनका कार्यक्रम क्या है? वे पहले से ही साफ करेंगे कि उनका प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? यह इसलिए कि देश ने इन्हें पद के लिए लड़ते-झगड़ते देखा है। इसके साथ ही इनको यह भी समझना ही चाहिए कि सत्तर के दशक के गैर-कांग्रेसवाद की बात और थी, जब इंदिरा गांधी की सत्ता को तक उखाड़ दिया गया था, पर अब वह बात नहीं रही। उस वक्त जनसंघ इनके साथ था। 1989 में जब कांग्रेस चुनाव हारी थी, उस समय भाजपा इनके ही साथ थी। अब ये गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपावाद की राजनीति कर रहे हैं और सच यह है कि केंद्र में ऐसी कोई सरकार अब बन ही नहीं सकती, जिसमें भाजपा या कांग्रेस में से कोई एक किसी न किसी रूप में शामिल न हो। साफ है कि इस गठजोड़ के नेता इस जरूरी तथ्य से अपरिचित नहीं होंगे। यानी, ये यह करेंगे कि पहले तो गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपावाद के नाम पर चुनाव लड़ेंगे, फिर चुनाव के बाद सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर कांग्रेस के साथ खड़े हो जाएंगे, जो मतदाताओं के साथ छल होगा। आशय यही है कि यह तीसरा मोर्चा कुल मिलाकर अवसरवादी गठजोड़ ही है।
बिना किसी स्पष्ट विजन के दो बार संसदीय राजनीति में तीसरे मोर्चा की सरकार तो बनी लेकिन स्वहित व जोड़ तोड़ की राजनीति से आपस में राजनीतिक वर्चस्व की टकराहट हुई जिससे कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। तीसरे मोर्चे की राजनीति के इतिहास के पन्ने अवसरवाद की राजनीति से भरे हैं। तीसरे मोर्चे में शामिल सभी राजनीतिक दल प्रधानमंत्री पद अपनी तरफ खींचना चाहेंगे। संभावित तीसरे मोर्चे के घटकों में आपसी अंतर्विरोध इतने हैं कि उनमें तालमेल बिठाना आसान नहीं है। मोर्चे में सभी अपने आप को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानते हैं। एक ही मांद में आखिर कितने शेर रहेंगे? मोर्चे के इन नेताओं में से एक भी ऐसा नहीं है, जो आज की जनभावना को स्वर दे सके। आज असली मुद्दा भ्रष्टाचार है। आज राष्ट्र एक ऐसे नेता की तलाश में है, जो भ्रष्टाचार-विरोध का सशक्त प्रतीक बन सके। क्या इनमें से कोई नेता ऐसा है, जो इस राष्ट्रीय शून्य को भर सके?
तीसरे मोर्चे का गठन घटक दलों की मजबूरी ही रहा है। अपने-अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं के दायरे में बंधे ये सभी दल, देश भर के चुनावी समर में भागीदार नहीं होते। लेकिन लक्ष्य तो एक ही है, सत्ता। केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा हो या नहीं, भागीदार तो बन ही सकते हैं। तीसरा मोर्चा हमेशा राष्ट्रीय दलों से खिन्नाये दलों का दिशाहीन झुँड ही रहा है। ना सबकी जरूरतें एक जैसी हैं और ना ही प्रतिबद्धता। अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से सभी एक-दूसरे का इस्तेमाल करते हैं ।
अब तक दो बार तीसरे मोर्चे का गठन तो हुआ लेकिन किसी ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया। यदि तीसरे मोर्चे की थोड़ी भी संभवना बनती है तो सबसे बड़ा सवाल होगा कि उस मोर्चे की पटकथा कौन लिखेगा? कहीं गठबंधन की प्रेम कहानी एक बार फिर अधूरी तो नहीं रह जाएगी? भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की उपादेयता प्रश्न चिन्हों से घिरी है। हमारे देश का राजनीतिक इतिहास साक्षी है कि तीसरा मोर्चा सदैव ध्रुवीय राजनीति का शिकार हुआ है। असली खेल तो चुनावों के बाद शुरू होगा। तब देखिएगा कि कौन किसके हाथ जाएगा। अभी हो रही घोषणाओं और गठबंधनों का कोई मतलब नहीं है। मतलब यह कि इस समय हर राजनीतिक दल की कोशिश बस एक है कि वह ज्यादा सांसदों के साथ नजर आए और फिर जहाँ उसे बेस्ट डील मिले, वहीं अपने तामझाम के साथ डेरा डाल दे। यानी सिद्धांत, पहले से तय गठबंधन, पुरानी दोस्ती इत्यादि सब महत्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर कुर्बान हो जाते हैं।
इस तथाकथित मोर्चे में जो क्षेत्रीय पार्टियां शामिल हो रही हैं, उनकी अखिल भारतीय हैसियत क्या है? आज की लोकसभा में सपा के 22, जनता दल(यू) के 20, माक्र्सवादी पार्टी के 16, बीजू जनता दल के 14, अन्नाद्रमुक के 9, कम्युनिस्ट पार्टी के 4, देवेगौड़ा जनता दल का 1 और अन्य छोटी-मोटी पार्टियों के तीन-चार सदस्य मिलकर कुल 100 सदस्य भी नहीं बनते। हाल में बिहार व उत्तरप्रदेश की राजनीति ने जैसा मोड़ लिया है और वामदलों का जैसा हाल है, उसे देखकर लगता है कि तीसरे मोर्चे को चुनाव में कहीं मोर्चा ही न लग जाए? चौबेजी छब्बेजी बनने जा रहे हैं। कहीं वे दुबेजी न रह जाएं। वामपंथ किस बीमारी से ग्रसित है इसका अंदाजा खुद उसको भी नहीं है लिहाजा तीसरे मोर्चे की संभवानाओं पर सवाल उठना लाजमी है। इसकी ही उम्मीद ज्यादा है कि तीसरा मोर्चा सिर्फ गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों का सिद्धांतहीन जमावड़ा ही साबित होगा! शरद पवार को ही देखिए, खुद भी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, मनमोहन सिंह के नाम की दुहाई देते भी नहीं थकते। महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ गठबंधन करते हैं। तीसरे मोर्चे के साथ दोस्ती करना भी बंद नहीं करते। सबको मालूम है कि वो चुनाव के बाद कहीं भी हो सकते हैं और कोई प्रधानमंत्री बना दे तो फिर तो सचमुच कहीं भी जा सकते हैं और कुछ भी कर सकते हैं। 2014 के संसदीय चुनावों के बाद ऐसी कोई सूरत उभरती दिखाई नहीं देती (यह बात पूरी निश्चितता के साथ कही जा सकती है), जब बिना कांग्रेस या भाजपा के साथ गए बाकी दल मिलकर सरकार बना लें। इसलिए मौजूदा संसदीय गतिरोध के बीच किसी नए राजनीतिक समीकरण के सूत्र देखना एक निरर्थक प्रयास है।


sureshhindustani@yahoo.com
डाक का पता - सुरेश हिन्दुस्थानी,
द्वारा- श्री आर. के. त्रिपाठी
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लश्कर ग्वालियर

सम्प्रति - देश के राष्ट्रवादी पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर लेखन और प्रकाशन





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