Wednesday, November 15, 2017

गुजरात में कांग्रेस के सामने चुनौतियों का पहाड़

सुरेश हिन्दुस्थानी
देश के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बने गुजरात विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस में अभी से ऐसे हालात बनने लगे हैं, जिनके कारण कांग्रेस के समक्ष एक तरफ कुआ तो एक तरफ खाई जैसी परिस्थितियां निर्मित होती दिखाई दे रही हैं। कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में गहरा प्रभाव रखने वाले अहमद पटेल के सामने पहले से भी ज्यादा चुनौती पैदा होती जा रही हैं। अभी हाल ही में अहमद पटेल से जुडे एक व्यावसायिक स्थल से आतंकवादियों की गिरफ्तारी उनको कठघरे में खड़ा करती हुई दिखाई दे रही है। इससे जहां कांग्रेस को पटखनी देने के लिए भाजपा को प्रभावशाली मुद्दा मिला है, वहीं कांग्रेस बैकफुट की ओर जाती हुई दिखाई दे रही है। कांग्रेस की सबसे बड़ी दुविधा यही है कि अगर वह अहमद पटेल से दूर रहने का प्रयास करती है तो स्वाभाविक रुप से कांग्रेस को मुसलमान वर्ग से नाराजी भी झेलनी पड़ सकती है, जो कांग्रेस कतई नहीं चाहती। अगर अहमद पटेल का समर्थन करती है तो फिर कांग्रेस से वह वर्ग दूर जा सकता है, जिसके लिए उसने लम्बे समय से रणनीति का उपयोग किया। कहने का तात्पर्य स्पष्ट है कि पटेल वर्ग को अपने पाले में करने के लिए कांग्रेस ने राजनीतिक चाल चली, उसमें कांग्रेस को उस समय सफलता मिलती हुई भी दिखाई दे रही थी, जब हार्दिक पटेल कांग्रेस नेता राहुल गांधी के संकेत पर कांग्रेस का समर्थन करते हुए दिखाई दिए। हालांकि हार्दिक पटेल जिस मुद्दे पर गुजरात में उभरे हैं, उस मुद्दे पर अडिग रहना उनकी राजनीतिक मजबूरी है। इसलिए हार्दिक पटेल ने अब कांग्रेस के सामने यक्ष स्थिति पैदा कर दी है। हार्दिक पटेल ने कांगे्रस से सवाल किया है कि पटेल आरक्षण पर कांग्रेस अपना रुख स्पष्ट करे।
राजनीतिक हालातों के विश्लेषण करने पर ऐसा भी लगता है कि हार्दिक का यह बयान भी पूरी तरह से कांग्रेस को फायदा पहुंचाने का एक कदम है। क्योंकि कांग्रेस पटेल वर्ग को आरक्षण देने की घोषणा कर सकती है। राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए कांग्रेस का यह कदम अब उजागर होने लगा है। जनता भी इस बात को समझने लगी है कि कांग्रेस अपने राजनीतिक उत्थान के लिए कैसी भी राजनीति कर सकती है। समाज में विघटन पैदा करने वाली कांग्रेस ने राज भी इसी पद्धति को आधार बनाकर ही किया है। आज भी कांग्रेस उसी राह का अनुसरण कर रही है। समाज में फूट डालने की मानसिकता से किया गया प्रचार चुनाव में सफलता तो दिला सकता है, लेकिन देश को मजबूत नहीं बना सकता। इसलिए कांग्रेस के बारे में यह आसानी से कहा जा सकता है कि वह केवल सत्ता प्राप्त करने के लिए ही राजनीति करती रही है, आज भी वही कर रही है। देश की समृद्धि से उसे कोई मतलब नहीं है।
गुजरात चुनाव में जिस प्रकार से राजनीतिक प्रचार किया जा रहा है, उससे यह भी लगने लगा है कि भाजपा में किसी भी प्रकार की घबराहट नहीं है, वहीं दूसरी ओर कांगे्रस के हालात इसके विपरीत दिखाई दे रहे हैं। उसमें घबराहट भी है और अपना अस्तित्व बचाए रखने के सशंकित जिजीविसा भी है। ऐसे में कांग्रेस किस परिणति को प्राप्त होगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल जरुर है, लेकिन उसके अपने कार्यकर्ता इस बात के लिए आशान्वित भी नहीं हैं कि गुजरात में कांग्रेस की सरकार ही बनेगी। कांग्रेस के कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक भी यह बात स्वीकार करने लगे हैं कि कांग्रेस की स्थिति में सुधार अवश्य हो सकता है, परंतु सरकार नहीं बन सकती। वर्तमान में कांग्रेस के समक्ष चुनौतियां ज्यादा हैं और प्रभावी भी हैं। क्योंकि गुजरात के पूर्व चुनावों में कांग्रेस के लिए चुनौती के रुप में राज्य का मुख्यमंत्री था, आज एक प्रधानमंत्री है। इससे स्पष्ट है कि अब गुजरात में चुनौती ज्यादा बड़ी है। राज्य का कोई व्यक्ति आज देश का प्रधानमंत्री है, यह भाजपा के लिए सकारात्मक कहा जा सकता है और भाजपा को इसी का राजनीतिक लाभ मिलेगा, यह तय है। राजनीतिक स्थितियां जो तस्वीर प्रदर्शित कर रही हैं, वह यह स्पष्ट कर रही हैं कि राज्य ही नहीं पूरे देश में आज नरेन्द्र मोदी सबसे बड़े राजनेता के रुप में स्थापित हुए हैं। ऐसी स्थिति में कांगे्रस का उनसे मुकाबला करना टेड़ी खीर ही प्रमाणित हो रहा है। कांग्रेस के नेता भले ही कुछ भी कहें, लेकिन वास्तविकता यही है कि गुजरात में भाजपा के सामने खड़े होने के लिए कांग्रेस को बहुत परिश्रम करना पड़ेगा।
बहरहाल भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दोनों पार्टियों में गुजरात चुनावों का माहौल लोकसभा चुनावों जैसा है। 1995 से निरंतर सत्ता में रही भाजपा अपने इस गढ़ को केवल बरकरार ही रखना नहीं चाहती, बल्कि इन चुनावों से नोटबंदी व जीएसटी जैसे मुद्दों पर जनता की मोहर लगवाने के मूड में है। दोनों राजनीतिक पार्टियां इस घमासान में एड़ी-चोटी का जोर लगाएंगी। पिछले 22 सालों से 60 सीटों तक सीमित रही कांग्रेस अपनी नजर इस बार पटेल और पाटीदार समाज पर टिकाए हुए है। गुजरात विधानसभा के पहले के चुनावों के राजनीतिक प्रचार पर ध्यान दिया जाए तो यही सामने आता है कि विपक्षी राजनीतिक दलों ने सांप्रदायिकता को अपना प्रमुख चुनावी हथियार बनाया था। दूसरी ओर भाजपा विकास, विकास और केवल विकास की ही बात करती रही। अब कांग्रेस से अपने पुराने मुद्दों से बहुत दूरी बना ली है। उसे समझ में आने लगा है कि गुजरात की जनता सांप्रदायिकता फैलाने वाले दलों के साथ नहीं है, वह पूरी तरह से विकास करने वाले दल भाजपा के साथ है। इसी कारण से भाजपा गुजरात में अभी तक सत्ता में है। गुजरात चुनावों में इस बार सबसे खास बात यह भी है कि राज्य में मुख्यमंत्री रह चुके नरेद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री के रुप में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, जो भाजपा के लिए सकारात्मक है।
अच्छी बात यह है कि गुजरात चुनावों में चाहे विरोधी दलों की बयानबाजी हो या फिर भाजपा नेताओं के बयान, सभी अब विकास की बात करने के लिए ही राजनीति करते दिखाई दे रहे हैं। पिछले चुनाव में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने नरेन्द्र मोदी को मौत का सौदागर तक बता दिया, लेकिन इसका परिणाम यही निकला कि भाजपा को गुजरात की सत्ता प्राप्त हो गई और कांग्रेस विपक्ष में ही रही। अब कांग्रेस को भी लगने लगा है कि इस प्रकार के मुद्दों से कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला है। इसलिए उसने भी आज भाजपा की तरह विकास की बात करनी प्रारंभ कर दी है। यानी गुजरात में अब विकास ही राजनीतिक मुद्दा है। कांग्रेस भले ही अपने राजनीतिक लाभ के लिए विकास की बात कर रही हो, लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस विकास से कोसों दूर है। हम जानते हैं कि कांग्रेस के एक बड़े नेता ने विकास को पागल की संज्ञा दे दी। यानी कांग्रेस मानती है कि देश में जहां भी विकास होगा, वह केवल पागलपन के अलावा कुछ भी नहीं है। इससे यह आसानी से समझ में आ जाता है कि कांग्रेस की राजनीति में स्थिरता नाम की कोई बात नहीं है। वह विकास की राजनीति भी कर रही है और विकास को पागल भी बता रही है। अब देखना यही होगा कि गुजरात में कांग्रेस भाजपा को पराजित करने के लिए किस प्रकार की योजनाएं बनाती है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

दिल्ली में संत्राश की छाया

दिल्ली में संत्राश की छाया
सुरेश हिन्दुस्थानी
जहरीली हवाओं के संत्रास को यूं तो पूरा देश ही झेल रहा है, लेकिन इस बार सर्दियों से ठीक पहले दिल्ली का वतावरण ऐसा हो गया है कि सांस लेने में भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। दिल्ली, एनसीआर और हरियाणा-उत्तर प्रदेश के निकटवर्ती जिलों में हवा का प्रदूषण फिर खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। हालांकि ऐसा कोई पहली बार नहीं बल्कि पिछले कुछ सालों से लगातार यह प्रदूषण जानलेवा स्तर तक पहुंचता नजर आ रहा है। आखिर ऐसा क्यों है कि सर्दियों के ठीक पहले ही दिल्ली की हवा अचानक जहरीली बन जाती है? वातावरण खराब करने के लिए पटाखों को जिम्मेदार मानकर उन पर प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन प्रतिबंध से कोई भी हल नहीं निकल सका। इसका मतलब भी साफ है कि दिल्ली के वातावरण को प्रदूषित करने के लिए केवल पटाखे ही जिम्मेदार नहीं थे, अगर पटाखे जिम्मेदार होते तो शायद अबकी बार इसमें कमी आई होती। सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस बार प्रदूषण खतनाक स्थिति में पहुंच चुका है। दिवाली के बाद फसल कटने और पराली जलने का भी मौसम कब का बीत चुका है, पराली जलाने के समय भी इतना प्रदूषण नहीं फैला जितना अब फैल रहा है। हवा प्रदूषित कैसे हुई? इसकी जानकारी होनी चाहिए थी, लेकिन सरकार और प्रशासन को संकट गहराने पर हाथ-पैर हिलाने की आदत सी पड़ी हुई है। दिल्ली वैसे भी सालों से दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी के तौर पर पहले से ही बदनाम है, लेकिन इसका चिंता न तो केन्द्र और राज्य की सरकार को रहती है। कई सालों से दिल्ली प्रदूषण की त्रासदी भोग रही है, लेकिन इससे कोई निजात पाने का स्थाई हल कभी खोजा नहीं जाता। आज भी जब हवा में जहर घुला नजर आ रहा है तब सरकार कुछ राहत वाले कदम उठा रही है। सवाल है कि जब हमें वायु प्रदूषण के मामले में विभिन्न तरह की रिपोर्टों से यह चेतावनियां मिलती रहती हैं कि वायु प्रदूषण के मामले में भारत में हवा में घुली गंदगी से होने वाली मौतों के मामले में भारत पिछड़ रहा है। इस मामले में हमारी सरकारों को यह भी देखना चाहिए कि सरकारी स्तर पर जो प्रयास किए जा रहे हैं, वह धरातल पर उतने ही तरीके से क्रियान्वित हो पा रहे हैं या नहीं। प्राय: यह सुना जाता है कि शासन की कई योजनाएं वास्तविकता से बहुत दूर होती हैं। इसमें दोष सरकार का नहीं, बल्कि क्रिशन्वित करने वाले उन अधिकारियों का है, जो केवल कागजी खानापूर्ति करके कार्य की इतिश्री कर देते हैं। वर्तमान में कई सरकारी योजनाएं सरकारी कागजों में बहुत बड़ी सफलता की कहानी कह रही हैं, लेकिन धरातल पर उनका इंच मात्र भी अस्तित्व नजर नहीं आता। पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए शासन स्तर पर कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। इन योजनाओं को संचालित करने के लिए गैर सरकारी संस्थाएं सरकारी अनुदान प्राप्त करके दिखावे की सफलता का बखान भी करते हैं, उसके बाद क्या कारण है कि प्रदूषण कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। वास्तव में गैर सरकारी संस्थाएं केवल सरकारी पैसों का पूरी तरह से दुरुपयोग ही कर रही हैं। वर्तमान में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए जो संस्थाएं काम कर रही हैं, उनके कार्यों की जांच होना चाहिए और जो काम उन संस्थाओं ने अपने कागजों में दर्शाया है, वह सत्य नहीं होने पर उनको अनुदान देना बंद कर देना चाहिए। संयोग की ही बात है कि भारत वायु प्रदूषण के मामले में लगातार जिस चीन से होड़ ले रहा है, उसकी राजधानी बीजिंग में भी मंगलवार को दिल्ली जैसा ही माहौल बना, लेकिन उसने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बीजिंग यात्रा से एक दिन पहले ही जहरीली धुंध से निजात पा लिया। यदि प्रदूषण रोकने के मामले में दिल्ली जैसी हीलाहवाली की जाती रही तो दिल्ली जैसा बुरा हाल देश के अन्य हिस्सों खासकर उत्तर भारत में भी देखने को मिलेगा। प्रदूषण के मामले में दिल्ली का बुरा हाल तब है जब सर्दियां शुरू ही हुई है। आने वाले समय में जब सर्दी बढ़ने के कारण हवा में नमी बढ़ेगी तो देश के अन्य शहरों में भी प्रदूषण घातक स्थिति में पहुंच सकता है। होना तो यह चाहिए कि सभी राज्य अपने-अपने स्तर पर प्रदूषण की रोकथाम के लिए कमर कसें, लेकिन इससे आसार कम ही हैं। इस मामले में पंजाब व हरियाणा की सरकारों को कहीं अधिक सक्रियता दिखाने की आवश्यकता थी, लेकिन दोनों ही राज्य अपने आश्वासन को पूरा करने में नकार रहे। नि:संदेह केवल हरियाणा और पंजाब को दोष देकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं की जा सकती क्योंकि प्रदूषण का एक मात्र कारण पराली जलाया जाना नहीं है। पराली पिछले माह से नहीं जलाई जा रही है। सच तो यह है कि वायु प्रदूषण गंभीर रूप तब लेता है जब वायु मण्डल में वाहनों के उत्सर्जन, कलकारखानों के धुएं और सड़कों एवं निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल की मात्रा बढ़ जाती है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी कई बार सरकारों को चेता चुका है, लेकिन उस ओर गंभीरता नहीं बरती गई। अगर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को घातक प्रदूषण से सुरक्षित नहीं रखा जा सकता तो फिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि दूसरे राज्यों में कोई सतर्कता बरती जाएगी? दिल्ली का वायु प्रदूषण स्थाई समस्या है और इसका समाधान की स्थाई हल निकालना होगा।

नोटबंदी से देश हुआ मजबूत

तिजोरियों में जमा पैसा अर्थ व्यवस्था का हिस्सा बना

सुरेश हिन्दुस्थानी
केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा एक वर्ष पूर्व किए गए नोट बदली से देश की आम जनता ने राहत महसूस की है। यही नहीं केन्द्र सरकार के इस महत्वपूर्ण कदम पर जनता ने अपनी मुहर भी लगाई है। एक वर्ष बाद देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा जारी किए एक वीडियो में जो बात कही गई है, वह आज की वास्तविकता है। यह सच है कि देश में जितना भी धन अमीरों की तिजोरियों में जमा था, वह सीधे बैंकों में जमा हो गया। इससे बैंक भी मालामाल हुर्इं और धनपतियों के घर में पूंजी का भंडार भी सरकार की निगरानी में आ गया। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो स्वाभाविक था कि यह धन बाहर नहीं आता। कांगे्रस पार्टी संभवत: इसी को त्रासदी का रुप दे रही है। अब सवाल यह आता है कि नोटबंदी के बाद देश में जो बदलाव दिखाई दे रहा है, वह कांगे्रस को क्यों नहीं दिख रहा है। क्या उसके पास राष्ट्रीय दृष्टिकोण का अभाव होता जा रहा है या फिर कालाधन वालों का दर्द ही दिखाई दे रहा है। नोटबंदी को त्रासदी की संज्ञा देना एक प्रकार से कांगे्रस पार्टी की राजनीतिक मजबूरी भी हो सकती है। क्योंकि कांगे्रस पार्टी के शासनकाल में जिस प्रकार से भ्रष्टाचार के माध्यम से देश की जनता की कमाई को लूटा गया, उसके कारण वर्तमान में कई लोग धनवान की पंक्ति में सम्मिलित हो गए। जबकि वर्तमान की यह सबसे बड़ी उपलब्धि ही कही जाएगी कि इस सरकार ने अपने स्वार्थ के लिए अभी तक कोई भी काम नहीं किया। जनता के हितों के संवर्धन हेतु ही कदम उठाए गए।
यह बात सही है कि देश की गरीब जनता नोटबंदी के कारण बैंक की लाइन में लगी थी, लेकिन उसकी जो दशा पहले थी, वैसी ही आज भी है। उसकी दशा में कोई परिवर्तन नहीं आया। इसके विपरीत भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाले लोग निश्चित ही नोटबंदी के बाद सचेत हो गए हैं। उन्होंने अपनी संपत्ति का अधिकांश हिस्सा बैंक में रखना प्रारंभ कर दिया है, इस कारण जो बैंक बंद होने की कगार पर दिखाई दे रही थी, वे फिर से मैराथन की मुद्रा में आ गर्इं हैं। नोटबंदी के एक वर्ष पूर्ण होने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने ट्वीट में कहा है कि 'भ्रष्टाचार और कालेधन को जड़ से उखाड़ने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कई कदमों का दृढ़तापूर्वक समर्थन करने के लिए मैं भारत के लोगों के आगे सर झुकाता हूं।' उन्होंने कहा कि 125 करोड़ भारतीयों ने एक निर्णायक लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। इसके अलावा प्रधानमंत्री ने नोटबंदी पर बनाई गई एक शॉर्ट फिल्म भी अपने ट्विटर अकाउंट से शेयर की है। लगभग सात मिनट की इस छोटी सी फिल्म में नोटबंदी के परिणामों पर एक नजर डाली गई है, जिसमें कहा गया है कि 1000 और 500 के पुराने नोट बंद होने से गरीबों और ईमानदार लोगों की नींद हराम नहीं हुई, बेईमान लोगों के जीवन में भूकंप सा आता दिखाई दिया। वीडियो में दावा किया गया है कि नोटबंदी के चलते देश में जमा कालाधन बैंकों में लौट आया है और आज सरकार के पास उनके मालिकों के नाम, पते और चेहरे मौजूद हैं। बताया गया है कि 23 लाख बैंक खातों में जमा 3.68 लाख करोड़ की राशि जांच के घेरे में है। वर्तमान में इसकी जांच की जा रही है।
इसके अलावा हम यह भी जानते हैं कि नोटबंदी के बाद आतंकवाद और नक्सलवाद की कमर टूट गई है। इनकी गतिविधियों में भी अप्रत्याशित कमी आई है। एक आंकड़े के अनुसार कश्मीर में पत्थरबाजी में भी 75 प्रतिशत की कमी देखी जा रही है। जाली नोटों और ड्रग्स के धंधे को भी बड़ा झटका लगा है। नोटबंदी का कदम शेल कंपनियों पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' जैसा ही था। इसके जरिए 2.24 लाख कंपनियां बंद की गईं। कहा गया है कि नोटबंदी नहीं होती तो आज 18 लाख करोड़ की हाई वैल्यू करंसी होती जो अब घटकर 12 लाख करोड़ हो चुकी है। सरकार ने बेनामी संपत्ति को लेकर बड़ी कार्रवाई की, नए टैक्स पेयर्स की संख्या में वृद्धि हुई, आॅनलाइन रिटर्न भरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई, नकद रहित व्यवस्था में तेजी आई, डिजिटल ट्रांजैक्शन के आंकड़े अप्रत्याशित रूप से बढ़े, प्रॉपर्टी के दाम में कमी आई और लोन की किश्तें कम हो गईं। जो पैसा लोगों की तिजोरी में था, वह देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन गया। नोटबंदी के बाद देश के नागरिकों के समक्ष परेशानी भले ही आई हो, लेकिन किसी का पैसा बर्बाद नहीं हुआ। इसके विपरीत कांगे्रस तो ऐसे प्रचारित कर रही है, जैसे गरीबों का पैसा बर्बाद हो गया हो, हां नोटबंदी से अमीरों का कुछ पैसा जरुर बर्बाद हुआ होगा। गरीब को आज भी उतना ही मिल रहा है, जितना नोटबंदी से पहले मिलता था। वास्तव में देश की गरीब जनता पूरी तरह से ईमानदार है, इसलिए वह देश में भी ईमानदारी चाहती है। सभी आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि जनता को कुछ दिनों के लिए पसीना बहाना पड़ा हो, लेकिन देश को अप्रत्याशित लाभ ही पहुंचा है। जनता भी यही चाहती थी कि देश से समस्याओं का निराकरण होना ही चाहिए।
नोटबंदी के फैसले को जल्दबाजी में लिया गया निर्णय बताना बिल्कुल गलत होगा, क्योंकि इस सरकार के आने के बाद से स्थिति को देखा जाए तो सब कुछ योजनाबद्ध नजर आएगा। पहले हर एक व्यक्ति का बैंक में खाता खोला गया, आधार कार्ड को अनिवार्य कर दिया गया, डिजिटल इंडिया के माध्यम से लोगों को जागरूक किया गया। उसके बाद नोटबंदी की गई। परिणाम स्वरुप नोट बदलवाने के लिए सबके पास बैंक अकाउंट थे, लोग भुगतान के लिए डिजिटल माध्यम जानते थे और गवर्नर सरकार के अनुसार काम कर रहे थे।
00000000000000000000000
सुरेश हिन्दुस्थानी
102 शुभदीप अपार्टमेंट, कमानीपुल के पास
लक्ष्मीगंज, लश्कर ग्वालियर मध्यप्रदेश
पिन-474001
मोबाइल-9425101815
9770015780 व्हाट्सअप

फारुक अब्दुल्ला और पाक परस्ती बयान

सुरेश हिन्दुस्थानी
जम्मू कश्मीर के बारे में अभी तक वास्तविकता से अनभिज्ञ रहे देशवासी अब यह जानने लगे हैं कि कश्मीर के समस्या के मूल कारण क्या थे। अब यह भी कहा जाने लगा है कि राजनीतिक स्वार्थ के चलते ही जम्मू कश्मीर में समस्याएं प्रभावी होती गर्इं। भारत की जनता यह कतई नहीं चाहती थी, लेकिन पाकिस्तान परस्त मानसिकता के चलते जो लोग पाकिस्तान की भाषा बोलते दिखाई दिए, उन्हें प्रसन्न रखने की राजनीतिक प्रयास किए गए। हम जानते हैं कि कश्मीर पर इसी राजनीति ने अलगाव की आग में झोंकने का काम किया है। पहले जिस काम को राजनीतिक संरक्षण में अलगाववादी नेताओं द्वारा किया जाता था, आज उसी काम को हमारे कुछ राजनेता आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। फारुक अब्दुल्ला का नाम इसी कड़ी का एक उदाहरण बनकर सामने आया है।
जम्मू कश्मीर में विवादित नेता के रुप में पहचान बनाने की ओर अग्रसर होने वाले पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला कमोवेश आज भी उसी राह पर चलते दिखाई दे रहे हैं, जो उनको अभी तक विवादों के घेरे में लाती रही है। पाकिस्तान और अलगाववादी नेताओं के सुर में सुर मिलाने की प्रतिस्पर्धा करने वाले फारुक अब्दुल्ला वास्तव में कश्मीर की जनता को गुमराह करने के काम कर रहे हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मामले में अभी हाल ही में दिए गए उनके बयान के कारण सामाजिक प्रचार तंत्र पर उनकी जमकर खबर ली गई। सोशल मीडिया पर भले ही निरंकुशता का प्रवाह हो, लेकिन देश भक्ति के मामले में सोशल मीडिया आज सजग भूमिका का निर्वाह कर रहा है। इतना ही नहीं कई बार सोशल मीडिया के माध्यम से जनता को जगाने का काम भी किया गया है। इसी जागरण के चलते आज फारुक अब्दुल्ला देश के लिए आलोचना का पात्र बनते दिखाई दे रहे हैं। अब बिहार के एक देशभक्त अधिवक्ता ने इनके देशद्रोही बयान को लेकर बेतिया के न्यायालय में एक याचिका दायर की है, जिस पर न्यायालय ने फारुक अब्दुल्ला पर देशद्रोह के तहत प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया है। यह मामला सही तरीके से चला तो स्वाभाविक है कि फारुक अब्दुल्ला के सामने बहुत बड़ी मुसीबत आने वाली है। हम जानते हैं कि राष्ट्र द्रोह बहुत बड़ा अपराध है और फारुक अब्दुल्ला ने वह अपराध किया है।
हम यह भी जानते हैं कि कश्मीर में भी आज हालात बदले हुए हैं, वहां पर जहां पत्थरबाजी की घटनाएं कम हुर्इं हैं, वहीं अलगाव पैदा करने वाले नेताओं की गतिविधियां भी लगभग शून्य जैसी हो गर्इं हैं। ऐसे में फरुक अब्दुल्ला का बयान पाकिस्तान परस्त मानसिकता रखने वाले लोगों के मन को मजबूत करने का ही काम करता हुआ दिखाई दे रहा है। ऐसे में सवाल यह आता है कि जो फारुक अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री के पद का निर्वाह कर चुका है और भारत की सरकार में मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पर पर रह चुका है, वह पाकिस्तान की भाषा क्यों बोल रहा है। उसकी ऐसी कौन सी मजबूरी है कि वह अलगाव को बढ़ाने जैसे बयान दे रहा है। वर्तमान में जब आतंकी गतिविधियां बहुत ही कम होती जा रही है, फारुक का इस प्रकार का बयान देना अशोभनीय ही कहा जाएगा। आज फारुक अब्दुल्ला को अपने स्वयं के बयानों के कारण भारत की राजनीति में लगभग निवासित जीवन जीने की ओर बाध्य होना पड़ रहा है। कोई भी राजनीतिक दल उनके बयानों के समर्थन में नहीं है। देश के तमाम राजनीतिक दल उनके बयान की खुले रुप में आलोचना भी करने लगे हैं। शायद फारुक अब्दुल्ला ने भी ऐसा सोचा नहीं होगा कि उन्हें इस प्रकार से अलग थलग होना पड़ेगा। हालांकि फारुक के बारे में यह भी सच है कि वह पहले भी इस प्रकार के बयान देते रहे हैं और अलगाववादी नेताओं की सहानुभूति बटोरते रहे हैं, लेकिन यह भी सच है कि आज अलगाव जैसे बयानों को उतना समर्थन नहीं मिलता, जैसा पहले मिलता रहा है। वर्तमान में फरुक अब्दुल्ला के बारे में यह आसानी से कहा जा सकता है कि वह अवसरवाद की राजनीति करते रहे हैं और आज भी यही कर रहे हैं। उनको समझना चाहिए कि देश में अवसरवादी राजनीति के दिन समाप्त हो रहे हैं। ऐसे बयानों से उनकी राजनीति ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चल पाएगी, इसलिए देश की जनता जो चाह रही है, फारुक को उसी रास्ते पर ही अपने कदम बढ़ाने होंगे, नहीं वह राजनीतिक दृष्टि से लगभग मृत प्राय: ही होते जाएंगे। हम यह भी जानते हैं कि आज से 40 वर्ष पहले नेशनल कांफ्रेंस ने कश्मीर की स्वायत्तता की मांग को पूरी तरह से छोड़ दिया था और फारुक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला ने स्वयं को मुख्यमंत्री के रूप में बहाल किया था और आसानी से भारतीय संविधान के सभी प्रावधानों को स्वीकार कर लिया था। ऐसे में सवाल यह आता है कि जब शेख अब्दुल्ला ने स्वायत्तता की मांग को एक किनारे रख दिया था, तब फारुक ऐसी मांग को फिर से जिन्दा करके क्या हासिल करना चाहते हैं। क्या वह अपने आपको भारत से अलग समझ रहे हैं। क्योंकि भारत में रहने वाला कोई भी नागरिक कम से कम ऐसे अलगाववादी बयान तो नहीं देगा। पाकिस्तान परस्ती दिखाने के बजाय फारुक भारत परस्ती दिखाएं तो ही वह भारत समर्थक कहे जा सकते हैं। ऐसे में तो यही लगेगा कि फारुक अपने आपको पाकिस्तान का निवासी ही समझता है। वास्तव में अब वह समय आ गया है कि भारत में रहने वाले पाकिस्तान परस्त मानसिकता वाले लोगों को देश से बाहर निकाला जाए, नहीं तो ऐसे लोगा एक दिन पूरे भारत का वातावरण खराब भी कर सकते हैं।

सऊदी अरब में योग की जय-जय

सुरेश हिन्दुस्थानी
भारतीय संस्कृति में शामिल सभी बातें पूरे विश्व के लिए दिशादर्शक हैं, पाथेय हैं। इस राह पर चलकर भौतिक उत्थान भले ही नहीं मिले, लेकिन भौतिक उत्थान को प्राप्त करने का सामर्थ्य अवश्य ही पैदा होता है। यूं तो भारत के सांस्कृतिक दर्शन में सभी का उत्थान निहित है, तथापि मानव जीवन की संचेतना का प्रवाह भी संचरित होता है। भारतीय दर्शन का जिसने भी एक बार साक्षात्कार किया है, वह इसका कायल ही हुआ है। वर्तमान में विश्व को कोई भी देश हो, वहां किसी न किसी रुप में भारतीय दर्शन की झलक दिखाई देने लगी है। दो वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति जीवन के महत्वपूर्ण अंग माने जाने योग को वैश्विक मान्यता मिली। यह भारत के लिए अत्यंत ही सौभाग्य की बात है। लेकिन अब मुस्लिम देश सउदी अरब में योग को अधिकारिक मान्यता मिल जाने से यह तो सिद्ध हो ही चुका है कि योग वास्तव में नागरिकों को स्वास्थ्य प्रदान करने का सर्वाधिक उचित माध्यम है। सउदी अरब में योग को अपने दैनिक जीवन के खेलों का हिस्सा बनाया है। इससे एक बात सिद्ध हो जाती है कि योग किसी मजहब या संप्रदाय के जीवन शैली का हिस्सा नहीं है। यह सर्वे भवन्तु सुखिन को ही मान्यता देता है और उसी आधार पर सउदी अरब ने योग को अपना अंग बनाया है।
इसके अलावा भारत में इसे लेकर कई प्रकार की विरोधी बातें प्रचारित की जाती रही हैं। इससे यह सवाल आता है कि विरोध करने वाले लोग वास्तव में योग की महत्ता को समझ नहीं पाए हैं। अगर समझ गए होते तो वे सभी आज योग के माध्यम से अपने जीवन को स्वस्थ बनाने की ओर अग्रसर कर रहे होते। योग एक ऐसी विधा है, जिसके माध्यम से कई लोगों ने अपने आपको स्वस्थ किया है, अपने जीवन का महत्वपूर्ण अंग भी बना लिया है। भारत में योग के बारे में हमेशा विरोधाभासी स्वर मुखरित होते रहे हैं। वास्तव में जो बात समाज के उत्थान के लिए होती है, उसे हमेशा मान्यता मिलना चाहिए, लेकिन कुछ लोग विरोध करके क्या प्रदर्शित करना चाह रहे हैं। यह समझ से परे है। सउदी अरब में मान्यता मिल जाने के बाद अब वहां कोई योग सिखाना या इसे बढ़ावा देना चाहे, तो लाइसेंस लेकर अपना काम शुरू कर सकता है।
सऊदी अरब में योग को मिली इस मान्यता के पीछे नउफ मरवई को श्रेय दिया जा रहा है। वह सऊदी अरब की पहली महिला योग प्रशिक्षक हैं। अरबी योगाचार्य के रूप में मशहूर नउफ ने वर्ष 2010 अरब योग फाउंडेशन की स्थापना की थी। उन्होंने जेद्दा में रियाद-चाइनीज मेडिकल सेंटर खोल रखा है, जहां पूरी तरह भारतीय पद्धति आयुर्वेद और योग जैसे गैर-पारंपरिक तरीकों से मरीजों का उपचार करती हैं। इससे वहां के नागरिकों को अप्रत्याशित स्वास्थ्य लाभ मिला है, इनकी सक्रियता के चलते सऊदी अरब में घर घर तक योग पहुंच चुका है। उनका मानना है कि योग का धर्म से कोई लेना देना नहीं, लेकिन कुछ कट्टरपंथी आज भी अपनी संकुचित मानसिकता के चलते योग को धर्म से जोड़कर ही देख रही हैं, जो उचित नहीं कहा जा सकता।
हालांकि यह सबसे बड़ा सच है कि इस्लाम मजहब के कट्टरपंथी रुख के लिए जाने जाने वाला सऊदी अरब इन दिनों बड़े बदलाव से गुजर रहा है। इससे पहले 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर सऊदी अरब के विभिन्न भारतीय स्कूलों में योग सत्र का आयोजन किया गया था। पिछले दिनों सऊदी के शाह सलमान बिन अब्दुल अजीज के बेटे और क्राउंस प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने पिछले दिनों सऊदी अरब को 'उदारवादी इस्लाम' की तरफ ले जाने का वादा किया था। इसी सिलसिले में वहां महिलाओं के कार चलाने पर प्रतिबंध भी हटा लिया गया। हालांकि सऊदी अरब में हो रहे इन बदलावों को वहां के कुछ धर्मगुरुओं की तरफ से विरोध भी झेलना पड़ रहा है। वैसे भी योग को लेकर मुस्लिम धर्मगुरुओं के विरोध का मामला कोई नया नहीं है। पिछले दिनों झारखंड के रांची में योग सिखाने वाली राफिया नाज के खिलाफ एक मौलाना के फतवे के बाद कुछ लोगों ने पथराव कर दिया था। भारत में योग करने को लेकर भले ही लोगों के अलग-अलग सुर हों, योग शिक्षिका राफिया नाज को धमकियां दी जा रही हों, उनके घर पर पथराव किया जा रहा हो, लेकिन मुस्लिम देश सऊदी अरब में ऐसा नहीं है। 12 नवंबर की अपनी फेसबुक पोस्ट में योग शिक्षिका राफिया नाज ने लिखा है, योग...जिसका शाब्दिक अर्थ ही जोड़ना है। लोगों के समूह को लोगों की भलाई से, एक शरीर को मन, भावनाओं और आत्मा से तथा किसी देश को विश्व से जोड़ने वाले योग की सऊदी अरब में आधिकारिक दस्तक हो गई है। इसने वैचारिक अतिवाद, कट्टरपन की सीमाओं को पार कर लिया है।
सऊदी अरब में योग को खेल का दर्जा ऐसे समय में दिया गया है जब भारत और कई दूसरी जगहों के मुस्लिम अपने धार्मिक नेताओं के दबाव में योग करने से इनकार कर रहे हैं। उनका दावा है कि योग गैर-इस्लामिक है।

फिर राजनीतिक भंवर में पाकिस्तान

सुरेश हिंदुस्तानी पाकिस्तान के बनने के पश्चात प्रारंभ से पैदा हुई उसकी राजनीतिक दुश्वारियां अभी तक पीछा नहीं छोड़ रही हैं। सत्ता के संघर्ष के...