विरासत
विरासत एक राष्ट्रवादी विचार का ब्लॉग पोर्टल है जिसमें आपको मार्ग बताने वाले कई आलेख पढ़ने को मिलेंगे.
Friday, February 23, 2024
फिर राजनीतिक भंवर में पाकिस्तान
Wednesday, February 21, 2024
डॉ. वंदना सेन की दो पुस्तकों का हुआ विमोचन
Wednesday, February 14, 2024
मस्तिष्क की संरचना से महसूस होता है ज्यादा दर्द
मस्तिष्क की संरचना से महसूस होता है ज्यादा दर्द
शिकागो की ‘नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी’ की प्रोफेसर वानिया अपाकारियन ने नेतृत्व में अध्ययन क
उन्होंने पाया कि जो अपनी चोट से भावनात्मक तरीके से जितना ज्यादा जुड़ा होता है उसे दर्द का एहसास उतना ही ज्यादा होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, अपाकारियन का कहना है कि चोट अपने आप में दर्द महसूस करने के लिए काफी नहीं है। दर्द चोट और मस्तिष्क की अवस्था से जुड़ा होता है। (एजेंसी)
चकनाचूर होता विपक्षी एकता का सपना
सुरेश हिन्दुस्थानी
लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष की अपनी-अपनी जिम्मेदारियां होती हैं। लेकिन जब विपक्ष के पास संख्या बल का अभाव होता है तो वह घायल शेर की तरह से दिखाने का प्रयास करता है। इसी दिखावे के प्रयास में कई बार ऐसी चूक हो जाती है कि उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। संसद में विपक्षी दल तेलगुदेशम पार्टी की ओर से लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर विपक्ष की जिस प्रकार से किरकिरी हुई, उसकी कसक विपक्षी राजनीतिक दलों को लम्बे समय तक रहेगी। लोकसभा में पर्याप्त संख्याबल न होने के बाबजूद अविश्वास प्रस्ताव को लाना किसी भी प्रकार से न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। इस प्रस्ताव को भले ही तेलगुदेशम पार्टी की ओर से लाया गया, लेकिन इसके केन्द्र में कांग्रेस पार्टी के नेता ही दिखाई दिए। विरासती पृष्ठ भूमि के उपजे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने आपको देश के सामने एक परिपक्व राजनेता के रुप में प्रस्तुत करने का राजनीतिक खेल खेला। इसे राहुल गांधी का राजनीतिक अभिनय कहा जाए तो भी ठीक ही होगा, क्योंकि इससे पूर्व कई लोग राहुल गांधी को पप्पू जैसे संबोधन दे चुके हैं।यह बात सही है कि अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में दोपहर में जब राहुल गांधी अपना वक्तव्य दे रहे थे, उस समय पूरे देश के विपक्षी दलों में एक आस बनती दिखाई दी कि राहुल गांधी अब परिपक्व राजनेता की श्रेणी में आ रहे हैं। समाचार चैनलों में चली बहस में भी राहुल गांधी के नए उदय को नए ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा था, लेकिन जैसे ही समय निकलता गया राहुल गांधी की वास्तविकता देश के सामने आने लगी। राहुल गांधी ने अपने आपको एक बार फिर से पप्पू होने का प्रमाण दे दिया। पहली बात तो यह है कि राहुल गांधी जिस प्रकार से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से गले मिले, वह जबरदस्ती पूर्वक गले मिलना ही था, क्योंकि इसके लिए संसद उचित स्थान नहीं था।
सबसे बड़ी बात यह भी है कि राहुल गांधी सरकार पर आरोप लगाते समय यह भूल जाते हैं कि वर्तमान सरकार जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है। यानी लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार है, इसलिए राहुल गांधी को कम से कम लोकतंत्र का सम्मान तो करना ही चाहिए। राहुल गांधी वर्तमान में कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, इसलिए उन्हें अपने पद की गरिमा का भी ध्यान रखना चाहिए। ऐसे आरोप लगाने से उन्हें बचना चाहिए, जिनका कोई आधार नहीं है। हम जानते हैं कि राहुल गांधी ने राफेल मुद्दे पर जो वक्तव्य दिया था, वह सार्वजनिक करने वाला नहीं था, क्योंकि रक्षा मामले बेहद संवेदनशील होते हैं, उन्हें उजागर करना भी ठीक नहीं होता, लेकिन राहुल गांधी ने ऐसा किया, जो ठीक नहीं था। अगर राहुल गांधी को संसदीय मर्यादाओं का ज्ञान नहीं है तो उन्हें पहले इनका अध्ययन करना चाहिए, नहीं तो वह नादानी में भविष्य में भी ऐसी ही गलती करते जाएंगे और कांग्रेस पार्टी की जो वर्तमान हालत है वह और खराब होती चली जाएगी। कहा जाता है कि आज कांग्रेस के समक्ष जो अस्तित्व का संकट पैदा हुआ है, उसके लिए कांग्रेस के नेता ही जिम्मेदार हैं, और कोई नहीं। चार वर्ष पहले जिस केन्द्र सरकार का अंत हुआ, उसके कार्यकाल से जनता प्रताड़ित थी, घोटाले होना तो जैसे सरकार की नियति ही बन गई थी। संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुए घोटाले के कई प्रकरण आज न्यायालय में विचारधीन हैं। कांग्रेस अगर स्वच्छ प्रशासन देने की बात करती है तो इसके प्रति फिलहाल जनता में विश्वास का भाव पैदा नहीं हो सकता। इसके लिए कांग्रेस को अपने आपको बदलना होगा और कांग्रेस का चाल, चरित्र और चेहरा बदल जाएगा, ऐसा अभी लगता नहीं है।
वास्तवविकता यह भी है कि जिस अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से विपक्ष सरकार को घेरने की योजना बना रहा था, उसमें किसी प्रकार का कोई वजन नहीं था, यह विपक्षी भी भलीभांति जानते थे। इतना ही नहीं उनको अपना संख्या बल भी पता था, फिर भी उन्होंने केवल अपनी राजनीति चमकाने के उद्देश्य से इस अविश्वास प्रस्ताव को रखा। बाद में क्या हुआ यह सभी को पता है। जितनी उम्मीद थी, उतना भी समर्थन इस प्रस्ताव को नहीं मिला और औंधे मुंह गिर गया। जबकि कांग्रेस पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जोर देते हुए कहा था कि हमारे पास अविश्वास प्रस्ताव लाने के पर्याप्त कारण हैं और हमारे पास संख्या संख्या बल है। इसे कांग्रेस का सबसे बड़ा झूठ भी कहा जा सकता है। इससे ऐसा ही लगता है कि कांग्रेस नेता झूठ बोलकर देश की जनता को गुमराह करने का काम कर रहे हैं। राहुल गांधी ने भी राफेल मामले में संसद में झूठ बोला। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को ऐसे झूठ बोलने से बचना चाहिए।
इस अविश्वास प्रस्ताव के निर्णय के बाद राजग सरकार पर तो कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन विपक्ष द्वारा जिस प्रकार से सत्ता की तड़प को उजागर करने वाली राजनीति की जा रही थी, उसको जरुर गहरा आघात पहुंचा है। अब यह तय सा लगने लगा है कि विपक्षी गठबंधन की जो कवायद देश में चल रही थी, उसमें दरार पड़ेगी। क्योंकि इससे कांग्रेस का वास्तविक आधार देश के सामने आ गया। वर्तमान में कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति का आकलन किया जाए तो ऐसा ही लगता है कि कांग्रेस के पास उतनी भी ताकत नहीं है, जितनी चार वर्ष पूर्व थी। इसके पीछे तर्क यही दिया जा सकता है कि चार वर्ष पहले कांग्रेस के प्रति अच्छा रवैया रखने वाले कई सांसद थे, आज उन सांसदों की संख्या में कमी आई है। अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में संप्रग के पूरे सांसदों ने भी साथ नहीं दिया। इसका आशय यह भी है कि भविष्य में कई राजनीतिक दल संप्रग से नाता तोड़ सकते हैं। ऐसे में जिस प्रकार से विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा गठबंधन की कवायद की जा रही है, वह कमजोर ही होगा। कोई भी राजनीतिक दल कांग्रेस के साथ आने को तैयार नहीं होगा। हां, इतना अवश्य हो सकता है कि जिन राजनीतिक दलों को भाजपा का भय होगा या अपने भविष्य के प्रति संदेह होगा, वह जरुर इस मुहिम का हिस्सा बन सकता है, लेकिन यह एक बार फिर से प्रमाणित हो गया है कि देश में विपक्ष अभी मजबूत विकल्प नहीं बन सका है। सरकार मजबूत है, यह संसद ने भी बता दिया है और जनता भी बता रही है।
आज देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यही दिखाई देता है कि कांग्रेस पार्टी को देश के कई क्षेत्रीय दल अपने स्तर का भी नहीं मान रहे हैं। यह सच भी है कि कई राज्यों में क्षेत्रीय दल आज कांग्रेस से ज्यादा प्रभाव रखते हैं। ऐसे में वह कांग्रेस को कितना महत्व देंगे, इसका पता चल ही जाता है। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि वह कई राज्यों में अपने स्वयं की ताकत के सहारे चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकती, इसलिए उसे कई राज्यों में सहारे की आवश्यकता महसूस हो रही है। कर्नाटक में भी यही दिखाई दिया, कांग्रेस ने अपने से कम राजनीतिक प्रभाव रखने वाले दल को राज्य की सत्ता सौंप दी। इसी प्रकार के हालात उत्तरप्रदेश में बन रहे हैं, यहां अभी गठबंधन बना ही नहीं, दरार के संकेत मिलने लगे हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)
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सुरेश हिन्दुस्थानी
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माँ की ममता का कोई मुकाबला नहीं
माँ की ममता का कोई मुकाबला नहीं
कोई भी माँ हो, माँ सबसे बड़ी होती है। बेटा कितना भी बड़ा हो जाए लेकिन माँ के सामने बेटा हमेशा बच्चा ही रहता है। माँ का उपकार बच्चे पर पूरी उम्र तक बना रहता है। जो माँ मरके भी अपने बच्चे के आसपास रहती है। उसकी हर प्रकार से रक्षा करती है। ऐसा दृश्य हम सभी ने माँ फ़िल्म में देखा भी है। यह है तो एक फ़िल्म का हिस्सा, लेकिन यह सत्य है, मैंने महसूस किया है। मुझे आज भी लगता है कि मेरी माँ आज भी मेरे आसपास है, जो मेरी रक्षा करती है।
भारत में हर वर्ष मई के महीने के दूसरे रविवार को मातृ दिवस मनाया जाता हैं। ऐसे तो हर दिन माँ की पूजा की जानी चाहिए पर माँ का महत्त्व ओर उनके त्याग के प्रतीक में यह दिन खास तौर पर मनाया जाता हैं। भारत में माँ को पूजने के लिए एक दिन नहीं, पूरी जिंदगी लोग लगा देते हैं। कहा जाता है कि माँ की ममता अनमोल है, उसकी कीमत कोई नहीं चुका सकता है। जन्म से पूर्व भी माँ हमको नौ महीने तक संभाल कर रखती है।
एक बालक माँ के गर्भ में रहता है उस समय से ही पोषण के साथ कई तरह की चीजे अपने माँ से सीखता हैं। मैंने अपने जीवन में कई सारी बाते अपनी माँ से सीखी हैं। हमेशा प्रेम करने वाली माँ कभी-कभी कठोर भी होती है तो सिर्फ अपने बच्चो के भलाई के लिए ही। मुझे इस बात की ख़ुशी हैं की मेरी माँ आज भी मेरे साथ हैं ओर उनके स्नेह ओर आशीर्वाद की शक्ति हमेशा मेरे पास हैं। माँ के उपकारो का वर्णन करना तो असंभव है।
पाश्चात्य दिशा की ओर बढ़ता भारत
सुरेश हिन्दुस्थानी
देश में यूं तो कई प्रकार के भारत विरोधी षड्यंत्र हो रहे हैं, लेकिन कुछ षड्यंत्र ऐसे भी हैं, जो सीधे तौर पर हमारे स्वर्णिम अतीत पर प्रहार कर रहे हैं यानी सीधे शब्दों में कहा जाए तो भारत की संस्कृति पर कुठाराघात कर रहे हैं। यह बात सही है कि विश्व के सभी देश अपनी स्वयं की पहचान को संरक्षित और संवर्धित करते हैं, लेकिन हमारे देश भारत में जैसा विदेशियों ने कह दिया, वैसा ही हम स्वीकार करने की मुद्रा में दिखाई देते हैं। यहां प्रश्न यह आता है कि क्या हमारा स्वत्व नहीं है। क्या हमारे देश की पहचान नहीं है? अगर है तो हम उसको बचाने के लिए कितनी ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं? नहीं कर रहे तो इसे किसकी कमी कहा जाएगा। भारत की सांस्कृतिक विशेषताओं के बारे में कहा जाए तो कई प्रमुख विशेषताएं हैं, जो भारत की एकता को स्थापित करती हैं। इतना ही नहीं भारत प्राकृतिक रुप से अत्यंत ही खूबसूरत देश है। पुरातन काल में भारत की सांस्कृतिक पंरपराओं ने पूरे विश्व को ज्ञान का दर्शन कराया था, लेकिन आज यह वर्जनाएं टूट रही हैं। हमने अपने आपको भुला दिया है, हम विदेश की जकड़न में फंसते जा रहे हैं। हमारा समाज सर्वकल्याण की भावना जगाने वाली संस्कृति से पीछा छुड़ा रहा है। जब हम ऐसा करेंगे तो हम कहां जाएंगे और हम आने वाली पीढ़ी को कौन सा भारत देकर जाएंगे। यह गंभीरता पूर्वक विचार करने का विषय है।
यहां विचार करने वाली बात यह भी है कि जो समूह भारत की संस्कृति पर कुठाराघात करने का प्रयास कर रहा है, उनको ऐसा करने के लिए प्रेरित कौन कर रहा है? कभी-कभी तो ऐसा भी सुनने में आता है कि विश्व में जितने भी भारत के दुश्मन देश हैं, उन्होंने अपने लिए जयचंदों की तलाश करली है और उन्ही जयचंदों के माध्यम से वह भारत को तार-तार करने की मुद्रा में हैं। कहा यह भी जा रहा है कि इन जयचंदों को ऐसा करने के लिए बहुत बड़ी धनराशि भी प्राप्त हो रही है। पहले आतंकी घटनाओं के रुप में हमारे देश को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा था, लेकिन अब ऐसा करने वालों ने भारत को कमजोर करने का तरीका बदल दिया है। अब बौद्धिक आतंकवाद के माध्यम से भारत के वातावरण में जहर पैदा करने का काम किया जा रहा है।
अभी कुछ दिनों पहले देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था उच्चतम न्यायालय ने एक अप्रवासी ईसाई जोसेफ शाइन की याचिका पर धारा 377 को समाप्त कर दिया। हो सकता है कि यह धारा हटाने से देश के मात्र कुछ ही लोगों को अच्छा लगा होगा, लेकिन इसे सभी के लिए हटाया गया है। यह बात सही है कि इस धारा को हटाने के लिए सम्पूर्ण भारतीय समाज की मांग नहीं थी। समलैंगिकता पश्चिमी जगत से आयातित शब्द है, भारत में इसकी आवश्यकता है ही नहीं, लेकिन जो भारत को कमजोर करने वाली ताकतें हैं, वह इसी प्रकार का भाव का प्रवाह देश में पैदा करना चाहती हैं।
भारत में सबसे बड़ी विसंगति यही है कि इस प्रकार के निर्णय के बाद भी भारतीय समाज चुपचाप अपनी संस्कृति पर हुए हमले को सहन कर रहा है। ऐसा निर्णय किसी अन्य समाज के बारे में हुआ होता तो हो सकता था कि ऐसा निर्णय बदल भी सकता था। जो काम पहले धारावाहिक निर्माता एकता कपूर के शो दिखा रहे थे, आज देश की सर्वोच्च संस्था ने भी दिखा दिया है। हम एक बार फिर कह रहे हैं कि ऐसा प्रश्न उठाकर हम सर्वोच्च न्यायालय की मंशा को गलत नहीं ठहरा रहे हैं, लेकिन जब समाज की ओर से कोई आवाज उठती है तो उसे विधायिका और न्यायपालिका तक पहुंचाने का कार्य भी होना चाहिए। क्या जनमानस में उठ रहा यह सवाल उचित नहीं है कि धारा 497 की समाप्ति के निर्णय से देश में अवैध व्यभिचार करने की खुली मान्यता मिल गई है। सवाल यह भी है कि ऐसे वातावरण में हम भविष्य की पीढ़ी के लिए कैसे भारत का निर्माण कर रहे हैं। ऐसी स्थिति के बाद हमारे भारत का सांस्कृतिक स्वरुप विदेशी विकृति के रुप में उपस्थित हो जाएगा। जो भारत के लोगों को शरीर से भारतीय, चरित्र से अंग्रेज और आत्मा से अमेरिकन बनाने का काम करेगा। पहले से ही मैकाले शिक्षा पद्धति अंदर से चरित्रहीनता भर ही रही थी। अब चरित्रहीनता बढ़ाने के सारे रास्ते खुल गए हैं।
भारत में दोनों धाराएं 377 और 497 को खत्म करना भारत को पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ाता है जो कामवासना, चरित्रहीनता, वेश्यावृति और व्याभिचार को बढ़ावा देकर भारतीय सभ्यता को खत्म करने का षड्यंत्र है। भारतीय सभ्यता में पर पुरूष गमन, पर स्त्री गमन को पाप और अमान्य माना गया है तो इस सभ्यता के एक पुरुष एक पत्नी के आदर्श को विखंडित करने के प्रयास कानूनपालिका कैसे चल रही है?
कामवासना, वेश्यावृति और व्याभिचार को बढ़ावा देकर भारत की संस्कृति, मर्यादा, संयम, विश्वास, आदर्श को रुढ़िवाद के नाम पर, आधुनिक सोच के नाम पर भारतीयता से दूर करके पश्चिमी सभ्यता पर ले जाया जा रहा है।
27 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय ने बड़ी चतुराई और सुनियोजित ढंग से एक के बाद एक निर्णय दिए। जिसमें पहला फैसला था धारा 497 को खत्म करना अर्थात अब विवाह के बाद पर पुरुष गमन, पर स्त्री गमन साधारण भाषा मे कहें तो पति के अलावा गैर मर्दों से शारीरिक सम्बन्ध बनाना कानूनन अपराध नहीं है। धारा 377 को खत्म कर वासना के लिए समलैंगिकता जैसी विकृति को स्वीकृति इसी महीने मिली और अब व्यभिचार को भी लीगल बना दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 377 के बाद अब धारा 497 पर फैसला सुनाया गया है। इस धारा के अंतर्गत व्यभिचार करते हुए कोई व्यक्ति पाया जाता तो दण्डित किया जा सकता था। इस धारा को हटाने के लिए हमारे देश में एक विशेष गुट कार्य कर रहा है। यह गुट देशवासियों को पशुतुल्य आचरण करने की छूट देना चाहता है। विडंबना यह है कि इस गिरोह के सुनियोजित षड्यंत्र को जानते हुए भी हम एकजुट होकर इनका विरोध नहीं कर पा रहे हैं। पिछले 15-20 वर्षों में इस गिरोह की हरकतें अनेक प्रकार से सामने आ रही हैं। जैसे मीडिया के माध्यम से बढ़ी अश्लीलता, लिव-इन-रिलेशनशिप, समलैंगिकता, पिंजरातोड़, विवाहेत्तर सम्बन्ध, विवाहपूर्व सम्बन्ध, विद्यालयों में सेक्स एजुकेशन। जिसके परिणाम निर्भया बलात्कार, छोटी-छोटी बच्चियों से लेकर वृद्ध महिलाओं से बलात्कार, बच्चों का यौन शोषण, सनकी आशिक के नाम पर लड़कियों पर हमला, एसिड अटैक, युवाओं में बढ़ते तलाक, कोर्ट-केस आदि के रूप में सामने आ रहे हैं। ऐसे समाज में परिवार समाप्त हो जाएंगे। सभी पशुतुल्य हो जाएंगे। समाज में विघटन हो जाएगा। यही विदेशी ताकतें चाहती हैं।
हमारे देश की संस्कृति के प्राण ही संयम और सदाचार रूपी आचरण में हैं। समलैंगिकता और स्वच्छंद व्यभिचार पर खुली छूट इसी सदाचार रूपी आचरण के विपरीत व्यवहार हैं। इसका परिणाम न केवल सामाजिक है अपितु आध्यात्मिक भी है। आत्म संयम धर्म का प्रदाता ईश्वर है। वेद इसी सन्देश को बड़े भव्य रूप से समझाते हैं।
पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता के दुष्प्रभाव से देश की संस्कृति का ह्रास होता जा रहा है। विदेशी चैनल, चल-चित्र, अश्लील साहित्य आदि प्रचार माध्यमों के द्वारा युवक-युवतियों को गुमराह किया जा रहा है। विभिन्न सामयिकों और समाचार-पत्रों में भी तथाकथित पाश्चात्य मनोविज्ञान से प्रभावित मनोचिकित्सक और सेक्सोलॉजिस्ट युवा छात्र-छात्राओं को चरित्र, संयम और नैतिकता से भ्रष्ट करने पर तुले हुए हैं। ऊपर ये ऐसा कानून बन जाए कि व्यभिचार करना कानून अपराध नहीं है तो फिर भगवान ही रक्षा करें। भारतवासियों को एकजुट होकर भारतीय संस्कृति को खत्म करने वाले कानूनों का विरोध करना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)
दागी नेताओं पर लगाम से सुधरेगी राजनीति
दागी नेताओं पर लगाम से सुधरेगी राजनीति
हमारे देश में जिस प्रकार से राजनीति में अपराध व्याप्त होता जा रहा है, उसके कारण सज्जन व्यक्तियों के लिए राजनीति में कोई जगह नहीं है। ऐसे में सवाल यह आता है कि जब राजनीति से सज्जनता समाप्त हो जाएगी, तब देश में कैसी राजनीति की जाएगी। इसका विश्लेषण किया जाए तो राजनीति का घातक स्वरुप का ही आभास होता है। देश में कई बार अपराधियों के राजनीति में प्रवेश प्रतिबंधित करने की मांग की गई, लेकिन जब राजनेता ही अपराध में लिप्त हों तो उनसे यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह राजनीति के शुद्धीकरण का समर्थन करेंगे। आज देश में कई राजनेता ऐसे हैं जिन पर कई प्रकार के आपराधिक आरोप लगे हैं, इतना ही नहीं कई नेताओं पर आरोप सिद्ध भी हो चुके हैं। इसके बाद भी वे सक्रिय राजनीति में भाग ले रहे हैं और चुनाव भी लड़ रहे हैं। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव इसका प्रमाण हैं। उन पर आरोप ही सिद्ध नहीं हुआ, बल्कि उन्हें सजा भी मिल चुकी है। हालांकि सजा के बाद वे चुनाव नहीं लड़े, लेकिन चुनाव में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया।
राजनीति में बढ़ रहे अपराधीकरण को लेकर अब चुनाव आयोग भी सक्रिय होता दिखाई दे रहा है। वास्तव में वर्तमान राजनीतिक स्वरुप को देखते हुए यह आसानी से कहा जा सकता है कि देश में बढ़ रहे सभी प्रकार के अपराधों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से समर्थन मिलता रहा है। इसी कारण से अपराधी प्रवृति के व्यक्ति भी आज राजनीति का आसरा लेते हुए दिखाई दे रहे हैं। इससे राजनीति का स्वरुप भी बिगड़ता जा रहा है। चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर की गई एक याचिका के सुनवाई के दौरान स्पष्ट रुप से कहा कि दागी नेताओं के चुनाव लड़ने पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए। चुनाव आयोग की यह मंशा निश्चित रुप से वर्तमान राजनीति को सुधारने का एक अप्रत्याशित कदम है। वर्तमान में देखा जा रहा है कि देश के कई सांसद और विधायकों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं, इतना ही नहीं कई नेताओं को दोषी भी ठहराया जा चुका है, लेकिन इसके बाद भी वे चुनाव में तो भाग लेते ही हैं, खुलेआम चुनाव प्रचार भी करते हैं। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर यह सवाल आता है कि आपराधिक छवि रखने वाले नेता किस प्रकार की राजनीति करते होंगे। यह भी स्वाभाविक है कि जो जैसा होता है, वह वैसे ही लोगों को पसंद करता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि आपराधिक छवि वाले राजनेता निसंदेह राजनीति में अपराध को ही बढ़ावा देने वाले ही सिद्ध होंगे। अगर देश में राजनीति को अपराध मुक्त करना है तो सबसे पहले यही जरुरी है कि राजनीति से अपराध के संबंधों को समाप्त किया जाए। चुनाव आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से की गई मांग आज समय की आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से यह भी कहा है कि राजनेताओं के प्रकरणों के निपटारे के लिए विशेष न्यायालयों के गठन की कार्यवाही की जानी चाहिए। ये विशेष अदालतें केवल नेताओं के प्रकरणों की सुनवाई करें और उनका जल्दी निपटारा करें। न्यायालय ने विशेष अदालतें गठित करने पर छह सप्ताह में सरकार को योजना पेश करने को कहा है। इसके साथ ही न्यायालय ने चुनाव लड़ते समय नामांकन में आपराधिक मुकदमों का ब्यौरा देने वाले 1581 विधायकों और सांसदों के मुकदमों का ब्योरा और स्थिति पूछी है। इसके अंतर्गत उन राजनेताओं से उनके प्रकरणों की वर्तमान स्थिति मांगी गई है। ऐसे सभी नेताओं पर चुनाव आयोग ने रोक लगाने की मांग की है। ऐसा होने पर अपराधी प्रवृति के राजनेता कभी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। उन्हें आजीवन चुनाव लड़ने से वंचित किया जाएगा। अभी तक नियम यह था कि सजा पूरी होने के बाद जेल से छूटने पर केवल छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर ही प्रतिबंध रहता था। चुनाव आयोग की पूरी हो जाने पर ऐसे नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध लग जाएगा।
दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए और राजनीति को अपराध मुक्त करने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि आपराधिक प्रवृति के नेताओं को चुनाव लड़ने से रोका जाए। इतना ही नहीं ऐसे नेताओं को चुनाव प्रचार करने से भी रोकना बहुत जरूरी है। चुनाव आयोग की तरह ही सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी भी यही प्रमाणित कर रही है कि वह भी अपराध से राजनीति को मुक्त करने की मंशा रखता है। ऐसा ही भाव प्रदर्शित करने वाला बयान केन्द्र सरकार की ओर से दिया गया है। यानी सभी राजनीति को शुद्ध करना चाहते हैं, लेकिन वे कभी नहीं चाहेंगे जो राजनीति को माध्यम बनाकर अपराध को बढ़ावा देते हैं।
सुनवाई के दौरान जब केन्द्र सरकार की ओर से पेश एडीशनल सालिसीटर जनरल एएनएस नदकरणी ने कहा कि सरकार राजनीति से अपराधीकरण दूर करने का समर्थन करती है। सरकार नेताओं के मामलों की सुनवाई और उनके जल्दी निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन का विरोध नहीं करती। हालांकि जब कोर्ट ने विशेष अदालतों के गठन के लिए ढांचागत संसाधन और खर्च की बात पूछी तो नदकरणी का कहना था कि विशेष अदालतें गठित करना राज्य के कार्यक्षेत्र में आता है। इस दलील पर नंदकरणी को टोकते हुए पीठ ने कहा कि आप एक तरफ विशेष अदालतों के गठन और मामले के जल्दी निस्तारण का समर्थन कर रहे हैं और दूसरी तरफ विशेष अदालतें गठित करना राज्यों की जिम्मेदारी बता कर मामले से हाथ झाड़ रहे हैं। ऐसा नहीं हो सकता। पीठ ने सीधा सवाल किया कि केन्द्र सरकार केन्द्रीय योजना के तहत नेताओं के मुकदमों के शीघ्र निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन क्यों नहीं करती। जैसे फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित किये गए थे उसी तर्ज पर सिर्फ नेताओं के मुकदमे सुनने के लिए विशेष अदालतें गठित होनी चाहिए। केन्द्र के विशेष अदालतें गठित करने से सारी समस्या हल हो जाएगी। कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि वह विशेष अदालतें गठित करने के बारे में छह सप्ताह में कोर्ट के समक्ष योजना पेश करे। पीठ ने कहा कि योजना पेश होने के बाद विशेष अदालतों के गठन के लिए ढांचागत संसाधन जजों, लोक अभियोजकों व कोर्ट स्टाफ आदि की नियुक्ति जैसे मसलों पर अगर जरूरत पड़ी तो संबंधित राज्यों के प्रतिनिधियों से पूछा जाएगा। इस मामले में 13 दिसंबर को फिर सुनवाई होगी।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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